Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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यही बात आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण के साधु-सामाचारीविधि पंचाशक की बाईसवीं, तेईसवीं तथा चौबीसवीं गाथाओं में 107 कही है
जिस प्रकार ज्ञानादि कार्य के लिए वसति से बाहर निकलते समय आवश्यिकी - सामाचारी है, उसी प्रकार देव - गुरु के अवग्रह, अर्थात् स्थान में प्रवेश करते समय निषीधिका- सामाचारी है, अर्थात् देव - गुरु के अवग्रह में प्रवेश करते समय अशुभ व्यापार के त्याग का सूचक 'निसीहि' शब्द बोलना चाहिए। अशुभ व्यापार का त्याग करने पर ही उस 'निसीहि' शब्द का अर्थ घटित होता है। अशुभ व्यापार का त्याग नहीं करने वाले के लिए निषीधिका (निसीहि) शब्द संगत नहीं है, क्योंकि उसमें निसीहि शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है, अतः अवग्रह में प्रवेश के समय अशुभ व्यापार का त्याग करना और उसके सूचक 'निसीहि' शब्द का उच्चारण करना नैषेधिकी है ।
गुरु की अवग्रहभूमि का परिभोग हमेशा ऐसी सावधानीपूर्वक किया जाए कि आशातना न हो, तभी ही वह अभीष्ट फलदायी होता है, अन्यथा फलदायी नहीं होता है तथा कर्मबन्ध का कारण बनता है ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि गुरु जहाँ बैठे हों, उस स्थान के चारों ओर शरीर - प्रमाण गुरु का अवग्रह है और देव का अवग्रह उत्कृट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का होता है । उत्कृष्ट अवग्रह चारों ओर साठ हाथ- परिमाण मध्यम नौ से लेकर उन्साठ हाथ के परिमाण और जघन्य नौ हाथों से भी कम परिमाण का होता
है ।
आशातनारहित सावधानीपूर्वक गुरुदेव के अवग्रह का परिभोग इष्ट फलदायी होता है, इसलिए जब सुश्रावक भी समवसरण में जाते हैं, तब महेन्द्रध्वज, चामर आदि को तथा जब मंदिर में जाते हैं, तब शिखर, कलश आदि को देखते ही अपने हाथी, अश्व या पालकी से नीचे उतर जाते हैं- ऐसा सुना जाता है, इसलिए साधु को भी गुरु - अवग्रह में जाते समय सावधानी रखना चाहिए ।
107 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/22, 23, 24 - पृ. सं. 208,209
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