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कथन के द्वारा आचार्य हरिभद्र यह स्पष्ट करते हैं कि शब्दार्थ से ही अर्थ स्पष्ट नहीं होता है, अपितु उसके भावार्थ को भी ग्रहण करना चाहिए। आचार्य हरिभद्र ने गुरु का महत्व बताते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि गुरु कौन है ?
वास्तव में गुरु वही है; जो आप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित गुरु के गुणों को आत्मसात् करता है, अर्थात् इन गुणों को धारण करता है। यदि गुरु में गुणों का अभाव है, तो वह गुरु बनने के योग्य नहीं है, क्योंकि जब गुरु में गुरु की योग्यता का अभाव ही है, तो वह शिष्य-परम्परा में अनुशासन, संयम आदि की आचरणा कैसे कर सकेगा ? अतः उस गुरु को, जो गुरु के गुणों से रहित है, गुरु नहीं माना जा सकता है। यही बात स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की पैंतीसवीं गाथा में स्पष्ट की है
जो गुरु मूल गुणों से रहित है, उनको ही गुरु के गुणों से रहित जानना चाहिए, न कि गुणों से रहित, साथ ही, विशिष्ट उपशम, शारीरिक-वर्ण आदि उत्तरगुणों से रहित गुरु को। यदि गुरु मूलगुणों से युक्त है, तो वह गुरु है। उत्तर गुणों से युक्त अथवा रहित हो- ऐसी स्थिति में गुरु को गुरु कहने में कोई बाधक तत्त्व सम्मुख उपस्थित नहीं होता है, परन्तु गुरु को गुरु कहने में बाधक तत्त्व मूलगुणों का अभाव ही है। इसके लिए आचार्य हरिभद्र ने चण्डरुद्राचार्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है। चण्डरुद्राचार्य अत्यन्त क्रोधी थे, पर मूलगुणों से युक्त थे, अतः गीतार्थ शिष्यों ने भी उनका त्याग नहीं किया था। वे गुरु का पूर्ण रूप से सम्मान भी करते थे। वास्तविकता यही है कि यदि गुरु मूलगुणों से युक्त है और उत्तरगुण न भी हो, तो उस गुरु का परित्याग नहीं करना चाहिए। यदि शिष्य गुरु के मूलगुणों से युक्त होने पर भी गुरु के उग्र स्वभाव को देखकर गुरु को अगीतार्थ समझ लेता है, अथवा परित्याग कर देता है, तो वह शिष्य कृतघ्न कहलाता है, क्योंकि कृतज्ञ शिष्य कभी भी ऐसे सद्गुरु का परित्याग नहीं करता है। इसी सन्दर्भ में, आचार्य हरिभद्र साधुधर्मविधि-पंचाशक की छत्तीसवीं गाथा में कथन करते हैं
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पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/35 – पृ. ' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/36 - पृ.
सं.
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