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विषय-सेवन की इच्छा अभिव्यक्त कर सकती है, अतः ऐसी परिस्थिति में यदि साधु सामने वाले की इच्छा पूरी करता है, तो संयम से पतित होता है और यदि इच्छा पूरी नहीं करता है, तो वह स्त्री उसे समाज में कलंकित और अपमानित कर सकती है, अतः अपने संयम को सुरक्षित रखने के लिए साधु को एकाकी विचरण नहीं करना चाहिए। प्रश्न उपस्थित होता है कि साध्वी के लिए विहार की विधि क्या है ?
यदि साधु को भी एकाकी विचरण की आज्ञा नहीं है, तो साध्वी को एकाकी विचरण की आज्ञा कैसे हो सकती है ? अतः किसी के लिए भी एकाकी विचरण संयम के पतन का हेतु है। एकाकी विचरण से पशुओं आदि का भी भय हो सकता है, अर्थात् कुत्ते आदि के द्वारा काटने की भी सम्भावना हो सकती है। एकाकी विचरण से साधु के प्रति द्वेष रखने वाला व्यक्ति कभी भी किसी भी प्रकार का भी आक्रमण कर सकता है।
___एकाकी विचरण करने वाला साधु भिक्षा की गवेषणा भी सुचारू रूप से नहीं कर सकता है, अतः उसे भिक्षा भी दोषयुक्त ही प्राप्त होगी।
एकाकी विचरण करने वाले साधु के पांचों महाव्रतों में भी दोष लगना सम्भव है
भिक्षा शुद्ध न मिलने के कारण प्रथम महाव्रत भंग होता है तथा प्राणातिपातविरमण-महाव्रत की विराधना सम्बन्धी प्रश्नों को पूछने पर वह निश्शंक जवाब नहीं दे पाता है, अतः मृषावाद-दोष भी लगता है। गृहस्थ के यहाँ खुली वस्तु देखने पर लेने की इच्छा होने पर अदत्तादान का दोष लग सकता है तथा स्त्री आदि को देखने पर रागभाव उत्पन्न होने पर अब्रह्म-सेवन तथा परिग्रह दोष लगता है, इसलिए उपर्युक्त दोषों से बचने के लिए साधुओं को एकाकी विहार की आज्ञा आप्त-पुरुषों ने नहीं दी है, अतः अपने संयम में दोष न लगे, इसलिए एकाकी विहार नहीं करना चाहिए। यद्यपि आगम में गीतार्थ को एकाकी विहार करने की आज्ञा दी गई है, किन्तु अन्य साधुओं को एकाकी विहार न करने की आज्ञा न देकर उन्हें गीतार्थ की निश्रा में ही विचरण करने
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