________________
मनुष्य-लोक में जो उत्तम और कृतज्ञ प्रकृति के हैं, वे ऐहिक और पारलौकिक-कल्याण के पात्र हैं, इसलिए वे उभयलोक में हितकर गुरु की अवज्ञा नहीं करते हैं, अर्थात् वे गुरु के सान्निध्य का त्याग नहीं करते हैं। यदि शिष्य सद्गुरु का त्याग करता है, तो वह संघ में, समाज में, देश में निन्दा का पात्र बनता है। जिस प्रकार पुत्र के द्वारा माता-पिता का त्याग करने पर पुत्र को निन्दा व हंसी का पात्र बनना पड़ता है, उसी प्रकार गुरु का त्याग करने वाला शिष्य भी लोगों की दृष्टि में हंसी का पात्र बनता है, अतः शिष्य को गुरु का परित्याग नहीं करना चाहिए तथा लोकनिन्दा का पात्र भी नहीं बनना चाहिए, क्योंकि निन्दा का पात्र बना हुआ शिष्य कहीं भी सम्मान नहीं पा सकता है। जिस प्रकार सड़ी हुई कुतिया को कोई भी अपने निकट नहीं आने देता है, अथवा एक पागल व्यक्ति को लोग अपने निकट नहीं आने देते हैं, दूर से ही पत्थर फेंकते हैं, वैसे ही निन्दित शिष्य को कोई भी अपने पास नहीं रखना चाहता है तथा दूर से ही उसे तिरस्कृत कर बहिष्कृत कर देते हैं। ऐसे ही निन्दा के पात्र बने हुए शिष्य के विषय में आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत सैंतीसवीं एवं अड़तीसवीं गाथाओं में' वर्णन किया है
जो साधु उत्तम और कृतज्ञ न होने के कारण गुरु की अवज्ञा करते हैं, वे साधु नहीं हैं, क्योंकि वैसे साधु पाप के अल्पबहुत्व (गुरुकुलवास और एकाकी विहार के लाभालाभ) को अच्छी तरह जानते नहीं हैं। वे अनेक साधुओं के साथ रहने में अशुद्ध आहार और परस्पर स्नेह आदि के दोष का सेवन करते हैं। वे निर्दोष भिक्षा आतापना, मासक्षमण आदि अनुष्ठान अपनी मति के अनुसार करते हैं। ऐसे गुरु की अवज्ञा करने वाले साधुआगम से भी निरपेक्ष प्रवृत्ति करने वाले होने के कारण जिन-शासन को निन्दा का पात्र बनाते हैं और गुरु की अवज्ञा करने से स्वतः भी क्षुद्र होते हैं।
___ ऐसे साधु प्रायः एक बार भी ग्रन्थि का भेद नहीं करते हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि हाने के बावजूद यदि एक बार भी ग्रन्थिभेद किया होता, तो ऐसी अनर्थ प्रवृत्ति नहीं करते। वे अज्ञानता से मासक्षमण आदि दुष्कर तप आदि भी करते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि तापसों की भांति वे जिनाज्ञा से रहित होने के कारण साधु नहीं हैं- इस विषय को शास्त्र में दिए गए कौए के उदाहरण से जानना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/37, 38 - पृ. - 195
420
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org