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गीतार्थ की निश्रावाले अगीतार्थ साधु का विचरण जातकल्प है तथा गीतार्थ की निश्रारहित अगीतार्थ साधु का विचरण अजातकल्प है, अर्थात् गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशानुसार श्रुतज्ञान को प्राप्त योग्य साधु-समुदाय के साथ विहार जातकल्प है तथा श्रुतज्ञान को प्राप्त नहीं करने वाले अयोग्य साधु-समुदाय के साथ विहार अजातकल्प है। पूर्ण संख्या वाले समाप्तकल्प है और अपूर्ण संख्या वाले असमाप्तकल्प हैं।
चातुर्मास के अतिरिक्त शेष काल में पांच साधुओं का विहार समाप्तकल्प है, उससे कम साधुओं का विहार असमाप्तकल्प है। चातुर्मास में सात साधु रहें, तो समाप्तकल्प और इससे कम रहें, तो असमाप्तकल्प कहलाता है। चातुर्मास में सात साधुओं के साथ रहने का विधान इस कारण है कि कदाचित् कोई साधु बीमार हो जाए, तो उसकी पर्याप्त सेवा कर सके।
जो साधु असमाप्तकल्प वाले और अजातकल्प वाले हैं, अर्थात् अपूर्ण संख्या वाले और अगीतार्थ हैं, उनका सामान्यतः कोई भी अधिकार नहीं होता है, अर्थात् ऐसे अयोग्य साधु जिस क्षेत्र में विचरण करते हैं, वह क्षेत्र और उस क्षेत्र से प्राप्त होने वाले शिष्य एवं आहार, वस्त्रादि पर उनका अधिकार नहीं होता है, इसलिए ऐसे अयोग्य साधुओं को स्वतन्त्र विचरण की आज्ञा नहीं है, अर्थात् उनके विचरण का निषेध किया गया है।
___ इससे यह सिद्ध होता है कि एकाकी विहार सभी साधुओं के लिए नहीं, अपितु विशिष्ट साधुओं के लिए ही है, क्योंकि विशिष्ट साधुओं का एकाकी विचरण हानिकारक नहीं होता है, अर्थात् उनका पतन सम्भव नहीं है, परन्तु सामान्य साधुओं के, अर्थात् अगीतार्थ साधुओं के एकाकी विचरण में अधिकांशतः पतन की सम्भावना बनी रहती है। इस कारण ऐसे साधुओं को एकाकी विचरण नहीं करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र ने एकाकी विचरण करने वालों को दोषपूर्ण ही बताया है, जिसका विवरण एकत्तीसवीं गाथा में दिया गया है
एकाकी विचरण करने वालों को अनेक दोष लगते हैं, जैसे- स्त्री-सम्बन्धी दोष। एकाकी साधु को गृह में आया देखकर परित्यक्ता, विधवा, अथवा अपरिणिता स्त्री
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/27 से 31 - पृ. - 192
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