Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आचार्य हरिभद्र ने स्थलशुद्धि के लिए मुद्रा आदि का भी विवरण प्रस्तुत किया है । मुक्ता सूक्ति के समान हाथ की मुद्रा बनाकर वायुकुमार आदि देवताओं का अपने-अपने मन्त्रों से आहवान करना चाहिए । फिर उन-उन देवताओं
सत्कार-सम्मान
के लिए भूमिशुद्धि - - रूप परिमार्जन अथवा जल - सिंचन करना चाहिए । वायुकुमार आदि देवताओं का आह्वान करने के पश्चात् यह कल्पना करना चाहिए कि मेरे निमंत्रण से वायुकुमार का आगमन हुआ है और मेरे आमंत्रण से वायुकुमार देव समवसरण की भूमि शुद्ध कर रहें है, इस प्रकार से चिंतन करते हुए दीक्षास्थल का प्रमार्जन एवं परिशोधन करना चाहिए। तत्पश्चात्, मेघकुमार का आह्वान करके समवसरण के चारों ओर भूमि पर सुगंधित जल का छिड़काव करना चाहिए, जिससे धूल आदि नहीं उड़ सके। इसके पश्चात्, बसन्त, ग्रीष्म आदि छः ऋतुओं का आहवान करके सुगंधित द्रव्यों एवं पुष्पों की वृष्टि करना चाहिए । इस प्रक्रिया के पश्चात् अग्निकुमार देवों का आहवान करने का विधान है। इन्हें आह्वान करके धूप जलाना चाहिए । यहाँ पर अन्य आचार्यों के मतों को भी प्रकट किया है कि अग्निकुमार देव का नाम न लेकर सभी सामान्य देवताओं का आहवान करके धूप खेना चाहिए। इसके पश्चात्, वैमानिक, ज्योतिष एवं भवनवासी देवताओं का आह्वान करके रत्न, सुवर्ण, रजत जैसे रंग वाले तीन प्राकार बनाना चाहिए, क्योंकि भगवान् के समवसरण में वैमानिक - देवादि अन्तर, मध्य और बाह्य- ये तीन प्रकार के क्रमशः रत्न, सुवर्ण और रजत के प्राकार बनाते हैं।
व्यन्तर- देवों का आह्वान करके उन प्राकारों के द्वारादि के तोरण, पीठ, देवछन्द, पुष्करिणी आदि की रचना करवाई जाती है । पुनः, चैत्यवृक्ष, सिंहासन, छत्र, चक्र, ध्वज इत्यादि की रचना की जाती है ।
इसके पश्चात्, समवसरण में जिस प्रकार चारों दिशाओं में भगवान् होते हैं, उसी प्रकार समवसरण में चारों ओर त्रिभुवन गुरु (भगवान्) के बिंबों की उत्कृट चन्दन के ऊपर स्थापना करनी चाहिए, साथ ही समवसरण में जिनबिम्ब के दक्षिण-पूर्व भाग में गणधरों की, गणधरों के पीछे मुनियों की, मुनियों के पीछे वैमानिक -देवियों की तथा उनके पीछे साध्वियों की स्थापना करना चाहिए ।
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