Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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सामायिक के होने पर ज्ञान और दर्शन अवश्य होते हैं, क्योंकि ज्ञान और दर्शन के बिना सामायिक नहीं हो सकती है। ज्ञान-दर्शन के बिना सामायिक में श्रद्धा भी नहीं होती है, अतः ज्ञान-दर्शन से युक्त सामायिक करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत प्रकरण की सातवीं गाथा में कहते हैं
विशिष्ट श्रुतरहित चारित्रवान् को भी ज्ञान और दर्शन तो होता ही है। ज्ञान-दर्शन के बिना सामायिक नहीं होती है। इस विषय को ग्रन्थों में प्रसिद्ध उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया गया है कि जड़ बुद्धि वाले माषतुष मुनि आदि को भी गुरु के प्रति निष्ठारूप ज्ञान और उस ज्ञान के अनुरुप दर्शन होता है, अर्थात् ऐसे मुनियों (शिष्यों) का गुरु के प्रति समर्पणभाव ही उनका ज्ञान और दर्शन है- ऐसा केवली भगवान् के द्वारा भाषित है, क्योंकि गुरु के प्रति समर्पण से ही ज्ञानरूपी फल प्राप्त होता है।
माषतुष मुनि की बुद्धि जड़वत् थी, अतः गुरु के द्वारा पाठ देने पर भी उन्हें याद नहीं होता था, इसलिए गुरु ने शिष्य के कर्मक्षय के लिए छोटा-सा सूत्र दिया कि वत्स इसे याद करो। मा रुष-मा तुष, अर्थात् न रोष करना है, न तोष होना है, जिसका तात्पर्य है- अनुकूल में न राग करना है और न प्रतिकूल में द्वेष करना है, परन्तु शिष्य इस छोटे-से सूत्र को भी कंठस्थ नहीं कर पाया और न शुद्ध बोल पाते। या मा रुस–मा तुस करते-करते वह शिष्य मा शतुष कहने लग जाता। गुरु फिर शुद्ध पाठ बताते, लेकिन शिष्य द्वारा वह पाठ फिर अशुद्ध हो जाता, पर फिर भी शिष्य परेशान नहीं हुआ, उसने गुस्सा भी नहीं किया कि गुरुजी ने कैसा सूत्र दिया है, जो याद ही नहीं होता। वह गुस्सा कैसे करता, क्योंकि वह तो गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित था और इसी समर्पण-भाव ने उस शिष्य को केवलज्ञान दे दिया। अतः, गुरु के प्रति समर्पण होना अतिआवश्यक है। साधुधर्म का स्वरूप- . आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की आठवीं तथा नौवीं गाथा में' साधुधर्मविधि-पंचाशक के अन्तर्गत साधुधर्म का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/8, 9 - पृ. - 185
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