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गुरु-आज्ञा के अनुसार शुभ अनुष्ठानों में प्रवृत्ति करता है, अर्थात् जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति नेत्र वाले के कथानुसार चलकर नेत्रवान् की तरह भयंकर जंगल पार कर लेता है, उसी प्रकार अगीतार्थ भी गुरु-आज्ञा का पालन आदि से गीतार्थ कीह तरह संसार रूपी जंगल को पार कर लेता है।
आज्ञा प्रधान शुभ अनुष्ठान ही साधुधर्म है। इस विषय में आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की बारहवीं गाथा में आगम वचनानुसार इसी बात को प्रमाणित किया है, जो इस प्रकार है
जिसको आप्त-वचनों में रुचि हो, उसी को चारित्र प्राप्त होता है, क्योंकि आप्त-पुरुषों की आज्ञा से ही चारित्र की उपलब्धि होती है- ऐसा आगमवचन है। आज्ञा में चलने वाले को अज्ञान नहीं होता है, फिर भी यदि किसी विषय में अज्ञानतावश कोई असत् प्रवृत्ति हो जाए, तो उसे सरलता से समझाया जा सकता है। इस प्रकार, आज्ञा में रुचि रखने वाले जीव को प्रज्ञापना के द्वारा चारित्र प्राप्त होता है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि आज्ञा-प्रधान शुभानुष्ठान धर्म है। कहा भी है- 'आणाए धम्मो', अर्थात् आज्ञा ही धर्म है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण के साधुधर्मविधि में साधु के लिए क्या आज्ञा है, इसका उल्लेख तेरहवीं गाथा में किया है
___ मुनि के लिए यह प्रकृष्ट जिन-आज्ञा है कि गुरुकुलवास का त्याग नहीं करना चाहिए। आचारांग के प्रथम सूत्र में भी सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि 'सुयं मे आउसं तेणंभगवया एवं मक्खाय' । हे आयुष्यमान् जम्बू ! गुरुकुलवास में रहते हुए मैंने सुना है कि उन भगवान् ने ऐसा कहा है। गुरुकुल का महत्व- आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत प्रकरण में चौदहवीं, पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं गाथाओं में गुरुकुल के महत्व का वर्णन किया है।
गुरु के सान्निध्य का त्याग करने से भगवान् की आज्ञा का त्याग होता है और भगवान् की आज्ञा होने पर इहलोक और परलोक- दोनों का त्याग होता है, क्योंकि
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/12 - पृ. - 186 | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/13 - पृ. - 187 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/14, 15, 16 - पृ. - 187
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