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प्रतिलेखन आदि शुभ अनुष्ठानों का पालन करना साधु का धर्म है, अर्थात् प्रतिलेखन आदि के पालन से ही चारित्र-धर्म का यथार्थ रूप से पालन होता है। यह अनुष्ठान ध्यान करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार का विधि और प्रतिषेधपूर्वक आगमानुसार आचरण होना चाहिए- यही जिनाज्ञा का सार है।
___ प्रश्न उपस्थित किया गया है कि श्रुताध्ययन के बिना कोई शुभ अनुष्ठान का पालन कैसे कर सकता है ? जिसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने किया है कि गुरुकुलवास से शुभ अनुष्ठान का पालन कर सकता है। पुनः, प्रश्न उपस्थित किया गया कि अगीतार्थ गुरुकुलवास से शुभानुष्ठान का पालन कैसे कर सकता है ? पंचाशक-प्रकरण की प्रस्तुत गाथा में ही इसका समाधान दिया गया है कि अंगीतार्थ गुरुकुलवास में गीतार्थ की आज्ञा का पालन करने के कारण अगीतार्थ होकर भी गीतार्थ-तुल्य है। गुरुकुल में रहे हुए अगीतार्थ के लिए शुभ अनुष्ठान का पालन करना दुष्कर नहीं है। पुनः, प्रश्न उपस्थित किया गया कि अगीतार्थ गीतार्थ की आज्ञा का पालन कैसे कर सकता है ? साधुधर्मविधि पंचाशक प्रकरण में इसका भी समाधान प्रस्तुत किया गया है कि अगीतार्थ इतना जानता है कि मेरे गुरु आगम के ज्ञाता हैं और मेरे लिए हितकारी हैं, यही ज्ञान अगीतार्थ को गीतार्थ की आज्ञा-पालन के योग्य बता देता है। इसी कारण, वह शुभ अनुष्ठानों का पालन करता है।
___ आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की दसवीं एवं ग्यारहवीं गाथा में स्पष्ट किया है कि अगीतार्थ किस प्रकार से शुभ अनुष्ठान कर सकता है
चारित्र से चारित्री मार्गानुसारी बनता है, अर्थात् मोक्षमार्ग के अनुकूल प्रवृत्ति करने वाला होता है। मार्गानुसारी होने के कारण गुरु के प्रति तथाविध ज्ञान, अर्थात् मेरे गुरु आगम के ज्ञाता हैं, मेरे लिए हितकारी हैं, मेरे कल्याण की उन्हें चिंता हैइस प्रकार का ज्ञान होता है। इस ज्ञान के कारण ही गुरु की आज्ञा-पालन आदि हितकारी कार्यों में उसकी प्रवृत्ति होती है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए अन्धे व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है। जिस प्रकार अन्धा अपने सहयोगी के मार्गदर्शन के अनुसार अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार मार्गानुसारी अगीतार्थ चारित्री भी
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/10, 11 - पृ. - 186
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