Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
प्रति प्रीतियुक्त होना चाहिए। इन गुणों से युक्त होने पर ही शिष्य गुरु को अपनी दीक्षा हेतु आत्म-निवेदन कर सकता है, अन्यथा उससे आत्म-निवेदन में प्रयत्न नहीं करना चाहिए।
गुरु भी सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान आदि गुणों से युक्त एवं तत्त्वत्रय के प्रति प्रीति वाला होना चाहिए।
___आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित पंचाशक के द्वितीय पंचाशक की पैंतीसवीं गाथा के अनुसार दीक्षा उन्हीं को प्राप्त होती है, जो भाग्यवान् हैं, अर्थात् वे परम धन्य हैं, जिन्हें यह दीक्षा प्राप्त होती है और वे धन्योत्तम हैं, जो श्रमणाचारों के नियमों का प्रतिज्ञापूर्वक पालन करते हैं, साथ ही उन्हें भी धन्य माना है, जो दीक्षार्थी एवं दीक्षा का सम्मान करते हैं और वे भी धन्य हैं, जो दीक्षा से द्वेष नहीं करते।
___ आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित पंचाशक प्रकरण के द्वितीय पंचाशक की जिनदीक्षाविधि के अन्तर्गत् छत्तीसवीं गाथा में दीक्षा के पश्चात् दीक्षित के लिए करने योग्य विधि का प्रतिपादन किया है
दीक्षित होने वाले को संघ के साधु-साध्वी आदि को यथाशक्ति एषणीय वस्त्र, पात्र, अन्न, पेय इत्यादि का दान देना चाहिए। दान की यह प्रवृत्ति आन्तरिक श्रद्धा एवं मोक्ष की अभिलाषा से होनी चाहिए। आचार्य हरिभद्र का मानना है कि दान की यह विधि पारम्परिक-रीतियों और अपने वैभव के अनुसार अनिवार्य रूप से करना ही चाहिए। इसके साथ ही जनोपचार, अर्थात् स्वधर्मी बन्धुओं का भी उचित सम्मान करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र ने सैंतीसवीं गाथा में वास्तविक दीक्षा के लक्षण भी बताते हुए कहा है
दीक्षा के पश्चात् दीक्षित शिष्य को स्वयं ही सद्गुणों के ग्रहण करने में, सहवर्तियों के प्रति प्रेम करने में, तत्त्वज्ञान के अध्ययन में तथा गुरु के प्रति भक्ति में वृद्धि करनी चाहिए, साथ ही दीक्षापूर्वक गृहीत लिंग का त्याग नहीं करना चाहिए, अर्थात् मन, वचन और काया से सम्यकचारित्र के नियमों का सम्यक् प्रकारेण पालन करना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/36 - पृ. पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/37 -पृ. -
399
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org