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अपमान करना, अथवा उनकी निन्दा करना लोक-विरुद्ध कार्य है। आचार्य हरिभद्र का कहना है कि अधिकांश लोग जिस व्यक्ति के विरुद्ध हों, ऐसे व्यक्ति के संसर्ग में रहना भी लोक-विरुद्ध कार्य है, जैसे- किसी व्यक्ति के जीवन में शराब, जुआं आदि का व्यसन तो नहीं है, पर फिर भी यदि वह शराब पीने वालों के अथवा जुआं खेलने वालों के साथ सम्पर्क रखता है, अथवा उनके साथ उठता-बैठता है, तो उसका यह कार्य लोक-विरुद्ध कार्य है। देश, जनपद, ग्राम, कुल आदि में प्रचलित सदाचार का अतिक्रमण करना, कुल की मर्यादा के विरुद्ध वस्त्र पहनना, शरीर के अंगों का प्रदर्शन करना लोक-विरुद्ध कार्य है। देश, काल, वैभव आदि का विचार किए बिना अनुचित दान तथा अपने तपादि को अहंकार-भाव से लोगों के सामने प्रकट करना भी लोक-विरुद्ध कार्य है। शिष्टजनों के प्रति दुष्ट लोगों द्वारा दी गई आपत्तियों को देखकर प्रसन्न होना, अथवा उन विपत्तियों को दूर करने में समर्थ होने पर भी विरोध नहीं करना इत्यादि को भी लोक-विरुद्ध कार्य जानना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय के अन्तर्गत ग्यारहवीं गाथा में सद्गुरु की प्राप्ति के सूचक कुछ उपाय बताएं हैं
___ स्वप्न में ज्ञानादि रत्नत्रय से युक्त गुरु का संयोग होना; जल, अग्नि, गढ्ढे आदि को पार कर जाना, पर्वत, वृक्ष, शिखर आदि पर चढ़ जाना, सर्पादि हिंसक-जीवों से आत्मरक्षा कर लेना आदि सद्गुरु-प्राप्ति के सूचक माने जाते हैं।
___ आचार्य हरिभद्र जिनदीक्षाविधि-पंचाशक में दीक्षा के अधिकारी आदि का वर्णन करते हुए यह भी लिखते हैं कि दीक्षार्थी जहाँ दीक्षा लेता है, उस स्थान की शुद्धि भी होना चाहिए। दीक्षास्थल की शुद्धि की विधि- बारहवीं से लेकर बाईसवीं तक की गाथाओं में यह विधि वर्णित है।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/12 से 22 - पृ. सं. - 24 से 27
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