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कहलाता है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत गाथा में चित्त के मुण्डन पर विशेष बल दिया है, क्योंकि जिनदीक्षा (जैनदीक्षा)-विधि में चैतसिक-विकारों का त्याग अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यदि कषायों का त्याग नहीं किया, तो चैतसिक-परिवर्तन कि बिना दीक्षामात्र बाह्य वेश-परिवर्तन हो जाएगी
द्रव्यानुयोगी देवचन्द्रजी ने आंतरिक-विषय-कषाय का त्याग किए बिना बाह्य-क्रिया के त्याग को द्रव्यलिंग ही बताया है।' दीक्षा का काल- आचार्य हरिभद्र के अनुसार दीक्षा का समय जीवन का अंतिम पुद्गल-परावर्तनकाल है। तीसरी गाथा में वे बतातें हैं
____ वास्तविक दीक्षा शुद्ध स्वभाव वाले तथा उत्तरोत्तर आत्म-विशुद्धि से युक्त जीव को उसके अंतिम पुद्गल-परावर्तनकाल में ही प्राप्त होती है। प्रश्न है कि यदि अंतिम पुद्गल-परावर्तन में दीक्षा होती है, तो क्या सभी दीक्षा लेने वाले का समय अंतिम पुद्गल-परावर्तनकाल ही है ? .
इसका समाधान तो पूर्व में ही मिल गया, अर्थात् प्रस्तुत अध्याय की दूसरी गाथा से स्पष्ट है कि चित्त-मुण्डन ही वास्तविक दीक्षा है। मस्तक-मुंडन की दीक्षा तो अंतिम पुद्गल-परावर्तन के पहले भी हो सकती है, पर चित्त-मुण्डन की दीक्षा तो अंतिम पुद्गल-परावर्तनकाल में ही होती है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत परावर्तनकाल में यह भी बताया है कि वास्तव में दीक्षा का अधिकारी कौन है ? अर्थात् दीक्षा किसे देना चाहिए ?
चौथी गाथा में वे बताते हैं
जिसे संयम के प्रति अनुराग है, जो लोक-व्यवहार में निषिद्ध कार्यों के प्रति उदासीन है, अर्थात् उनका त्याग कर दिया है तथा जिसे सद्गुरु का सान्निध्य प्राप्त
1 पंचप्रतिक्रमण –बाह्यक्रिया सब त्याग जम् में द्रव्यलिंग घर लिनो - श्रीमद् देवचन्द्रजी
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/3 - पृ. - 22 *पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/4 - पृ. - 22 4 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/5,6 - पृ. - 22,23
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