Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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भगवान् महावीर को मैं नमस्कार करके भव्य जीवों के बोध के लिए आगमों
से उद्धृत, नय से युक्त जिनदीक्षाविधि को संक्षेप में कहूँगा ।
जिनदीक्षा - प्रव्रज्या जिनदीक्षा को प्रव्रज्या भी कहते हैं। जिनदीक्षा वैराग्य की विशिष्ट भूमिका है, जिससे मुमुक्ष सांसांरिक कामनाओं से मुक्त होकर, अर्थात् राग-द्वेष से विरक्त होकर अतीत में हुए ज्ञात-अज्ञात अपराधों की क्षमायाचना कर सभी के प्रति मैत्रीभाव से युक्त होकर एवं मोह को तोड़कर मात्र गुरु चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण कर दे तथा गुरु की आज्ञा प्राप्त कर समभाव की साधना करने की प्रतिज्ञा करे, इसे ही जिनदीक्षा अथवा प्रव्रज्या कहते हैं ।
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प्रतिज्ञा किए हुए
व्रतों को
ज्यों के त्यों
यावत्जीवन पालन करना, प्रव्रज्या है ।
दी गई क्षाम्यभाव की शिक्षा को स्वीकार करना, वह दीक्षा है ।
आचार्य हरिभद्र ने दीक्षा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए दूसरी गाथा में
कहा है
दीक्षा का स्वरूप दीक्षा मुंडन को कहते हैं, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने सिर के मुंडन को मुंडन न कहते हुए चित्त के मुंडन को मुंडन कहा है, अर्थात् चित्त से मिथ्यात्व, मोह, क्रोध आदि दोषों को निष्कासित कर देना वास्तव में मुंडन है, क्योंकि जिसमें क्रोध, मोह आदि कषाय की तीव्रता है, ऐसा व्यक्ति दीक्षा का अधिकारी नहीं है। ठाणांगसूत्र के अनुसार मुण्ड (जयी) के पांच-पांच प्रकार करते हुए दस भेद बताए हैं- श्रोतेन्द्रिय-मुंड, चक्षुरिन्द्रिय-मुंड, घ्राणेन्द्रिय - मुंड, जिह्वेन्द्रिय - मुंड और स्पर्शनेन्द्रिय-मुण्ड । अन्य पांच प्रकार से - क्रोध- मुण्ड, मान - मुण्ड, माया- - मुंड, लोभ- मुंड और शिरो - मुंड । मुंडित सिर के साथ-साथ चार कषायों के एवं पांच इन्द्रियों के विषयों के त्याग से ही साधु मुण्डित
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पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 2 / 2 - पृ. - 21
2 गणांगसूत्र
- म. महावीर स्वामी
स्थान- 5 - गाथा - 177
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