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की जाना चाहिए और आलोचना का स्वरूप क्या है ? आदि व्रतों की विशद् चर्चा की है। इस प्रसंग में अग्रिम प्रायश्चित्तविधि का विवेचन किया गया है। यद्यपि यह ज्ञातव्य है कि आलोचना, प्रायश्चित्त का ही एक रूप है, फिर भी आचार्य हरिभद्र ने आलोचना और प्रायश्चित्त- दोनों का स्वतन्त्र रूप से विवेचन इसलिए किया है कि आलोचना के साथ-साथ प्रायश्चित्त-विधान पर भी गम्भीर चर्चा की जा सके। प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक में उन्होंने मुख्य रूप से दस प्रकार के प्रायश्चित्त का वर्णन किया है। इसके पश्चात् आचार्य हरिभद्र ने कल्पविधि और भिक्षुप्रतिमाविधि का भी विवेचन किया है। जहाँ कल्पविधि में दस प्रकार के स्थित और अस्थित-कल्पों का विवेचन है, वहीं भिक्षुकल्पविधि में मुख्य रूप से बारह प्रकार की प्रतिमाओं का विस्तृत उल्लेख मिलता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने इस पंचाशक-प्रकरण में मुनिधर्म के लिए लगभग नौ पंचाशकों का निर्माण किया है। इन नौ पंचाशकों की विशेषता यही है कि परम्परागत मुनि-आचार के विवेचन के साथ-साथ आचार्य हरिभद्र ने अपने युग की स्थिति के अनुसार मुनि-आचार की समीक्षा भी की है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि पंचाशक में मुनिधर्म का एक सम्यक् और विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है, जो परम्परागत् विवेचनों की अपेक्षा विशिष्ट है। यद्यपि आचार्य हरिभद्र ने मुनि-आचार के सभी पक्षों का समावेश करने का प्रयत्न किया है, तथापि जैन-आगमों एवं आगमिक-व्याख्याओं में मुनिधर्म का जितना विस्तृत विवेचन मिलता है, उसकी अपेक्षा यह संक्षिप्त ही कहा जाएगा, फिर भी उन्नीस पंचाशकों के इस महाग्रन्थ में नौ पंचाशक मुनि-आचार से ही सम्बन्धित हैं। आगे हम इसी आधार पर हरिभद्र के मुनि-आचार की संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत करेंगे। पंचाशक-प्रकरण में जिनदीक्षाविधि- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के द्वितीय जिनदीक्षाविधि-पंचाशक के अन्तर्गत मुमुक्षुओं के दीक्षा-सम्बन्धी विधि-विधानों के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन करने के पूर्व अपने आराध्य के चरणों में नमन अर्पण करते हुए प्रथम गाथा में लिखते हैं
01 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/1 - पृ. - 21
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