Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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ग्रहण करता है। इसी प्रसंग में आचार्य हरिभद्र ने सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात- इन पांच चारित्रों की विस्तार से चर्चा की है। जैन-परम्परा में यह माना जाता है कि सामायिक और छेदोपस्थापन-चारित्र ही वर्तमान युग में प्रचलित हैं। वर्तमान में में परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म-संपराय और यथाख्यात-चारित्र का अभाव पाया जाता है। इसी साधुधर्मविधि में आचार्य हरिभद्र ने शांति-मार्दव-आर्जव आदि दस मुनिधर्म की चर्चा की है और इसी सन्दर्भ में आचार्य हरिभद्र गुरुकुलवास को अधिक महत्व देते हुए प्रतीत होते हैं। इस पंचाशक के अन्तर्गत मुख्य रूप से निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा से मूलगुणों और उत्तरगुणों की भी चर्चा की गई है और इसी चर्चा में पंच-समिति और तीन गुप्तिरूप अष्ट-प्रवचन माता की भी चर्चा की है और यह माना जाता है कि इन अष्ट प्रवचन-माताओं का परिपालन ही साधुधर्म का प्राण है।
मुनि-आचार के प्रसंग में आचार्य हरिभद्र साधुसामाचारीविधि का विवेचन करते हैं। इस विधि के अन्तर्गत मुनिधर्म की साधना करने वाले व्यक्ति की मिच्छाकार आदि दस प्रकार की सामाचारी का उल्लेख किया गया है और यह भी बताया गया है कि दसविध समाचारी का पालन करके ही मुनि अपने मूलगुणों और उत्तरगुणों की रक्षा कर सकता है।
मुनि को अपना जीवन जीने क लिए आहार की आवश्यकता है। उसे किस प्रकार से आहार ग्रहण करना चाहिए- इसकी विशद जानकारी हेतु पिंड-विधानविधि नामक पंचाशक की योजना की है। इसमें मुख्य रूप से उद्गम के सोलह, उत्पादना के सोलह, एषणा के दस और आहार-ग्रहण के पांच- ऐसे सैंतालीस दोषों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है।
इसके पश्चात्, आचार्य हरिभद्र मुनिधर्म के अन्तर्गत अठारह हजार (18,000) शीलांगों का वर्णन करते हैं और यह बताते हैं कि शीलांगों का पालन ही मुनिधर्म का पालन है। शीलांगों की साधना में अतिक्रम हो सकता है, अतः आचार्य हरिभद्र ने मुनिधर्म के अन्तर्गत् ही आलोचना और प्रायश्चित्त- ऐसे दो पंचाशकों की रचना की है। इसमें आलोचना-पंचाशक के अन्तर्गत् आलोचना के योग्य कौन है ? किसके समक्ष आलोचना
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