Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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चतुर्थ-अध्याय
मुनि - आचार
पंचाशक - प्रकरण आचार्य हरिभद्र ने जिस प्रकार गृहस्थ-धर्म का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया, उसी प्रकार वे मुनिधर्म का भी सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करते हैं।
मुनिधर्म की इस विवेचना में सर्वप्रथम मुनिधर्म में प्रवेशरूप जिनदीक्षा का विवेचन करते हैं और इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट करते हैं कि कौन व्यक्ति जिनदीक्षा के योग्य है और कौन अयोग्य ? इस पंचाशक में उन्होंने यही बताने का प्रयत्न किया है कि जिनदीक्षा ग्रहण करने वाले को केवल शिरो - मुंडन एवं वेश - परिवर्तन ही नहीं करना होता है, अपितु इसके लिए चित्त की दुष्प्रवृत्तियों का मुंडन करना भी आवश्यक है। मिथ्यात्व एवं काम-क्रोध आदि को दूर किए बिना व्यक्ति जिनदीक्षा का अधिकारी नहीं हो सकता, अतः जिनदीक्षाविधि - पंचाशक में हरिभद्र सर्वप्रथम यह स्पष्ट करते हैं कि कौन व्यक्ति जिनदीक्षा का अधिकारी है और कौन व्यक्ति जिनदीक्षा का अधिकारी नहीं है। इस सम्बन्ध में हरिभद्र ने आगमिक - परम्परा के अनुसार ही जिनदीक्षा ग्रहण करने योग्य और अयोग्य व्यक्ति की चर्चा की है। इसके पश्चात्, इस पंचाशक में वे परम्परा से चली आ रही दीक्षाविधि का उल्लेख करते हैं। ज्ञातव्य है कि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में जिनदीक्षा में योग्य कौन है और अयोग्य कौन है - इसकी विस्तृत चर्चा तो मिलती है, किन्तु दीक्षाविधि का स्पष्ट विवेचन वहाँ नहीं मिलता है। यही कारण रहा होगा कि आचार्य हरिभद्र ने जिनदीक्षाविधि - पंचाशक में तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण विधि-विधान का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि यह सम्पूर्ण दीक्षाविधि चाहे जैन - परम्परा का अनुसरण करती हो, परन्तु हिंदू तांत्रिक - परम्परा का इस पर स्पष्ट प्रभाव है और इस विधि के द्वारा ही यह निश्चित किया जाता है कि कौन व्यक्ति दीक्षा के योग्य है और कौन नहीं। इस सन्दर्भ में हमने विस्तार से चर्चा की है 1
मुनिधर्म के सन्दर्भ में पंचाशक - प्रकरण में जिन-जिन विषयों की चर्चा की है, उनमें जिनदीक्षाविधि के पश्चात् साधुधर्मविधि और साधुसामाचारीविधि प्रमुख है। ग्यारहवें साधुधर्मविधि - पंचाशक में यह बताया गया है कि साधु सर्व - विरति चारित्र को
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