Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
समवसरण के बारह पुष्प गिरने पर शंकादि अतिचारों की आलोचना एवं अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म को स्वीकार करने-रूप विधि करवाने का निर्देश दिया है। पुनः पुष्पपात की विधि निम्नानुसार कराना चाहिए। यदि पुष्प समवसरण में गिरा, तो दीक्षार्थी को दीक्षा के योग्य घोषित कर देना चाहिए, यदि पुष्प समवसरण के बाहर गिरा, तो पूर्ववत् शंकादि की विधि करवाना चाहिए। यदि इस बार पुष्प समवसरण में गिरा, तो दीक्षा देना चाहिए और यदि बाहर गिरा, तो दीक्षार्थी को अयोग्य समझकर मधुर शब्दों में दीक्षा देने हेतु मना कर देना चाहिए।
वर्तमान में ऐसी विधि किसी भी सम्प्रदाय में प्रचलित नहीं है। दीक्षार्थी की योग्यता के अतिरिक्त साथ रहने पर उसके स्वभाव एवं व्यवहार को देखकर भी यह निर्णय कर लिया जाता है कि दीक्षा देना है या नहीं। कई साधु-साध्वी संयम के प्रतिकूल स्वभाव को देखकर भी उसकी अयोग्यता का निर्णय नहीं कर पाते एवं दीक्षा दे देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कई बार स्वयं के लिए, समुदाय एवं सम्प्रदाय के लिए तथा शासन के लिए खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के द्वितीय पंचाशक की अट्ठाईसवीं गाथा में दीक्षार्थी की दीक्षा की योग्यता का निर्णय करने के बाद गुरु के द्वारा करने योग्य विधि को निम्न रूप में दर्शाया
समवसरण में पुष्पपात की परीक्षा से दीक्षार्थी की योग्यता निश्चित हो गई हो, तो ऐसा निर्णय होने के बाद सर्वप्रथम गुरु दीक्षार्थी को सम्यग्दर्शन आरोपण- की विधि करवाए, क्योंकि सम्यग्दर्शन का आरोपण ही जिनदीक्षा की प्रारम्भिक भूमिका है। सम्यग्दर्शन-आरोपण के पश्चात् सम्यक्त्व के आचार का प्रतिपादन करे, तत्पश्चात् दीक्षाविधि का वर्णन करना चाहिए। दीक्षार्थी की मुखाकृति की प्रसन्नता अथवा उदासीनता का अवलोकन करने के लिए दीक्षार्थी की इस प्रकार प्रशंसा करना चाहिए- तुम धन्य ही नहीं, धन्योत्तम हो, जो तुम्हें जिनशासन मिला एवं जिनशासन में जिनदीक्षा का सुअवसर प्राप्त हो रहा है। धन्य हो तुम, जो इस अल्पवय में संसार के भोगों को तिलांजलि देकर
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2/28 - पृ. - 29 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/29 - पृ. सं. - 30
396
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org