Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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संसाराभिनन्दी जीवों की अपेक्षा मोक्षमार्गाभिमुखी जीव विशिष्ट गुण वाले हैं। विशिष्ट गुणवाले मोक्षमार्गाभिमुखी जीवों से दर्शनप्रतिमाधारी अधिक श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे जिज्ञासा को सत्य मानकर उन गुणों से युक्त होते हैं। ये गुण कायिक-रूप होने से, अर्थात् काया से व्यक्त होने से यहाँ प्रतिमा का अर्थ शरीर किया गया है। व्रत-प्रतिमा का स्वरूप
एवं वयमाईसुवि दट्ठव्वमिणंति णवरमेत्थवया।
घेप्पंतऽणुव्वया खलु थुलगपाण वहविरयादी।। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमाविधि के अन्तर्गत् व्रत-प्रतिमा के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि दर्शन-प्रतिमा की तरह, व्रत आदि अन्य सभी प्रतिमाओं में भी 'प्रतिमा' शब्द शरीर का ही परिचायक है। व्रत-प्रतिमा में स्थूलप्राणातिपात-विरमण आदि पांच अणुव्रत ही स्वीकार किए गए हैं, जिनका पालन शरीर द्वारा होने के कारण इसे व्रत-प्रतिमा कहा गया है।
उपासकदशांगसूत्र के अनुसार पहली प्रतिमा के यथावत् ग्रहण के बाद क्रमशः दूसरी से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक ग्रहण करने के उल्लेख हैं।
आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिमं ।
एवं तच्चं, चउत्थं, पंचमं, छठें, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दशमं, एक्कारसमं जाव आराहेइ। उपासकदशांगसूत्र की टीका के अनुसार व्रत-प्रतिमा में दर्शनप्रतिमा से युक्त पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन अनुकम्पा-गुण से युक्त होता है।' दशाश्रुतस्कंध में
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/7 – पृ. – 166 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/8 – पृ. - 166
उपासकदशांगसूत्र - म. महावीर-1/71 - पृ. -67 * उपासकदशांगसूत्रटीका - आ. अभयदेवसूरि-1/71 - पृ. - 68
'दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि - 6/9- पृ. -445 2 रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-7/138 - पृ. - 470 ३ (क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेय - 29 (ख) उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 821 (ग) अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति -7/68
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