Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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लिया है। रत्नकरण्डक-श्रावकाचार एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा में अन्न, पान, खाद्य और लेह्यइन चारों ही प्रकार के आहार को नहीं खाता है। वह रात्रिभोजन-त्याग का प्रतिमाधारी होता है- इस प्रकार कहा है। उपासकाध्ययन में दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करने को रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा कहा है।' वसुनन्दि-श्रावकाचार एवं सागारधर्माऽमृत के अनुसार जो मन, वचन और काया से कृत, कारित एवं अनुमोदित आदि नौ प्रकार से दिन में मैथुन का त्याग करता है, उसके दिवामैथुनत्याग-प्रतिमा होती है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रस्तुत अध्याय में कायोत्सर्गप्रतिमाधारी को किस प्रकार का चिन्तन करना चाहिए, यह बताया है
सायइ पडिमाएँ ठिओ तिलोगपुज्जो जिणे जियकसाए।
णियदोसपच्चणीयं अण्णं वा पंच जा मासा।।' कायोत्सर्ग प्रतिमाधारी कायोत्सर्ग को अंगीकार करते समय कषायजित और त्रिलोकपूज्य जिनेश्वर परमात्मा का ध्यान करता है, अथवा अपने रागादि दोषों का चिन्तन करते हुए आलोचनारूप ध्यान करता है। इस प्रतिमा का उत्कृष्ट काल पांच महीने का है।
प्रस्तुत प्रतिमा के विश्लेषण में दिगम्बर व श्वेताम्बर–परम्परा में भिन्नता प्रकट होती है। आचार्य हरिभद्र ने पंचम श्रेणी में कायोत्सर्ग को स्थान दिया है एवं कहा है कि अष्टमी, चतुर्दशी को कायोत्सर्ग करना चाहिए, वहीं दिगम्बर- परम्परानुसार इस प्रतिमा का साधक सचित्त वस्तुओं का त्याग करता है।
'उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 821 2 (क) वसुनन्दी-श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. - 296
(ख) सागारधर्माऽमृत - पं. आशाधर-7/12 3 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/19 - पृ. - 169
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