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पोसेइ कुसलधम्मे जं ताऽऽहारादिचागणुट्ठाणं ।
इह पोसहोत्ति भण्णति विहिणा जिणभासिएणेव ।। जिस प्रक्रिया से आत्मधर्म का पोषण होता हो, जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित है- ऐसी सुविधि से आहार, शरीर-सत्कार, अब्रह्मचर्य, सावधव्यापार- इन चारों का त्याग करना पौषधप्रतिमा कहलाता है।
____ उपासकदशांगसूत्रटीका में कहा गया है कि पूर्वोक्त प्रतिमाओं के साथ जो अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों पर प्रतिपूर्ण पौषधव्रत की आराधना करता है, वह पौषध-प्रतिमाधारी है।' दशाश्रुतस्कंध में उपर्युक्त तीनों प्रतिमाओं के पालन के साथ चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णमासी एवं अमावस्या के दिन जो परिपूर्ण पौषधव्रत का पालन करता है, किन्तु एक रात्रि की उपासकप्रतिमा का पालन नहीं करता है, वह पौषधप्रतिमाधारी होता है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार, अमितगतिश्रावकाचार में प्रत्येक मास के चारों ही पर्व-दिनों में अपनी शक्ति के अनुसार पौषध को नियमपूर्वक करना पौषधप्रतिमा कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा और वसुनन्दि-श्रावकाचार में बताया गया है कि सप्तमी एवं त्रयोदशी के दिन अपराह्न के समय जिनमंदिर में जाकर चारों आहारों का त्याग कर उपवास करना तथा सर्वव्यापारों को छोड़कर रात्रि करना, सवेरे पुनः सारी क्रियाओं को करके उस दिन को शास्त्राभ्यास में व्यतीत करना, पुनः धर्मध्यान मे रात बिताकर उषाकाल में सामायिक-वन्दना आदि करके यथावसर तीनों पात्रों को भोजन कराकर पीछे स्वयं भोजन करना- इस प्रकार की क्रिया पूर्ण करने वाले श्रावक को पौषधप्रतिमा होती है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक-प्रकरण में पौषध के भेदों को स्पष्ट किया है
'उपासकदशांगसूत्रटीका - आ. अभयदेवसूरि - पृ. - 66
दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि -6/20 (क) रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-7/140 - पृ. -471
(ख) अमितगति श्रावकाचार - आ. अमितगति -7/68 4(क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेय - 72-75
(ख) वसुनन्दी-श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. - 281-289 5 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/15 - पृ. - 168 452 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/16 - पृ. - 168
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