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यतना-द्वार का उपसंहार
जिनभवन-निर्माण में भूमि से लेकर प्रतिष्ठा तक के कार्य को आरम्भपूर्वक करवाने पर भी यह प्रवृत्ति यतनापूर्वक होने के कारण अहिंसा - युक्त ही है तथा पूजा, जिन - महोत्सव आदि में भी विवेक होने के कारण यह प्रवृत्ति भी अहिंसा है।
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यतना से तात्पर्य है— अप्रमत्तता । जहाँ अप्रमत्तता है, वहाँ अहिंसा है। इसी अहिंसा के स्वरूप का विवरण करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि - पंचाशक की बयालीसवीं गाथा में' कहते हैं
भूमिशुद्धि आदि में विधिपूर्वक सावधानी रखने वाले व्यक्ति की जिनमन्दिर - निर्माण सम्बन्धी प्रवृत्ति में जीवहिंसा होने पर भी वह अधिक आरम्भ की क्रियाओं की निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसा ही है। इसी प्रकार जिन - पूजा, जिन-महोत्सव आदि सम्बन्धी प्रवृत्ति भी अधिक जीवहिंसा से निवृत्त कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसा ही है । जिन - मन्दिर निर्माण के बाद की विधि- मन्दिर - निर्माण का कार्य सम्पन्न होने के बाद जिनमन्दिर-निर्माता के यही भाव होना चाहिए कि वह शीघ्र ही सद्गुरु आचार्य की निश्रा में जिनालय में परमात्मा को विराजमान करे, क्योंकि परमात्मा के बिना उस मन्दिर की क्या शोभा होगी ? जैसे- आत्मा के बिना शरीर का कोई महत्व नहीं है, माँ के बिना पुत्र का कोई महत्व नहीं है, पति के बिना पत्नी का कोई महत्व नहीं है, ज्ञान के बिना आत्मा का कोई महत्व नहीं है, पंख के बिना पक्षी का कोई अस्तित्व नहीं है, ज्योति के बिना आँख का कोई महत्व नहीं है, ठीक इसी तरह परमात्मा के बिना मन्दिर का कोई महत्व नहीं है, अतः श्रावक शीघ्रातिशीघ्र शुभ मुहूर्त्त में भावोल्लास के साथ परमात्मा की प्रतिष्ठा करवाएं। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि पंचाशक की तिरालीसवीं गांथा में कहते हैं
उक्त विधि से सुन्दर जिन - मन्दिर तैयार करवाकर उसमें विधिपूर्वक तैयार कराई गई जिन - प्रतिमा को विधिपूर्वक शीघ्र प्रतिष्ठित कराना चाहिए ।
1 पंचाशक- प्रकरण आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/42 - पृ. - 128 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/43 - पृ. - 128
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