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मनुष्य-जीवन की दुर्लभता तो आज हमारे लिए सुलभ बनी हुई है और ऐसी दुर्लभ सामायिक की साधना का अवसर भी हमारे सामने उपस्थित है। जिसके लिए देवगण भी अपने हृदय में चिन्तन करते हैं कि- मात्र एक मुहुर्त भी सामायिक की प्राप्ति हो जाए, तो हमारा देवतत्व सफल है, जैसे
सामाइय सामग्गिं देवावि चिंतति हियय मज्झमि । जय होई मुहूत्तमेगे तो अद् देवतंणं सहलं ।।
सामायिक को पाने के लिए जहाँ देव चातक की तरह तरस रहे हैं, वहाँ हम सामायिक का संयोग मिलने पर भी सामायिक के महत्व व लक्ष्य को समझ नहीं पाए, इसी कारण हजारों सामायिक करने पर हमारी भी सामायिक सम्यक-सामायिक नहीं बना पा रही है। औपचारिक सामायिक की संख्या तो बढ़ गई है, परन्तु समता नहीं बढ़ी नहीं, इसी कारण मानव अपने तनाव को नहीं मिटा पा रहा है, वह समत्व के शिखर पर नहीं चढ़ पाता है, तलहटी से ही शिखर को देखता रहता है। सामायिक का काल- पंचाशक-प्रकरण में सामायिक करने के समय को लेकर कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी सामायिक तीनों काल में करने योग्य है, समय का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
___श्वेताम्बर-शास्त्रों में ऐसा कहीं वर्णन पढ़ने को नहीं मिलता है कि सामायिक प्रातः ही करना है, या अपराह्न में नहीं या अपरान्ह करना है, मध्याह्न में नहीं, या अन्य समय में नहीं। दिगम्बर-ग्रन्थों में सामायिक तीन बार करने का विधान हैपूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न ।
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/25 - पृ. - 10 (क) अमितगति - आ. अमितगति- 6/87
(ख) कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेया- 53 + पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - अमृतचन्द्राचार्य- 149
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