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उपर्युक्त श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा में वर्णित नामों और क्रमों में अंतर होने पर भी इनके स्वरूप में विशेष मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता है, क्योंकि दिगम्बर-साहित्य में जिसे अनुमति त्याग प्रतिमा कहा है, श्वेताम्बर–साहित्य में से प्रेष्यारम्भ-त्याग में ही समाविष्ट कर लिया गया है एवं श्वेताम्बर-साहित्य में जो श्रमणभूत प्रतिमा है, उसे दिगम्बर परम्परा में त्याग नाम दिया गया है। इनमें श्रावक का आचार क्रमशः श्रमण के समान हो जाता है।
___ इन ग्रन्थों में श्रावक-प्रतिमाओं का स्वरूप इस प्रकार बताया गया हैदर्शन-प्रतिमा का स्वरूप -
दसणपडिमा णेया सम्मत्तजुयस्स जा इहं बोदी।
कुग्गहकलंकरहिया मिच्छत्तखओवसमभावा ।। यहाँ सम्यक्त्व से युक्त जीवन का शरीर दर्शन-प्रतिमा है। दर्शन प्रतिमाधारी मिथ्यात्व के क्षयोपशम से युक्त होने के कारण कदाग्रह के कलंक से रहित होता है।
यहाँ शंका उठाई गई है कि सम्यग्दर्शन के पालन रूप दर्शन-प्रतिमा होने पर भी यहाँ सम्यकदृष्टि के शरीर को दर्शन-प्रतिमा क्यों कहा गया है ? इसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने सातवीं गाथा में किया है, अतः हम वहीं से इसका स्पष्टीकरण शुरु करेंगे।
मिथ्यात्व कदाग्रह का कारण होता है। मिथ्यात्व का क्षयोपशम हो जाने पर कारणहीनता के फलस्वरूप कदाग्रह भी नहीं रहता है। जिस प्रकार शरीर में विष व्याप्त ही नहीं है, तो फिर विष का विकार कैसे होगा, क्योंकि विष विकार का कारण विष ही है, उसी प्रकार मिथ्यात्वरूप कारण के बिना कदाग्रहरूप कार्य भी नहीं होगा।
मिच्छत्तं कुग्गहकारणंति खओवसममुवगए तम्मि।
ण तओ कारणविगलत्तणेण सदि विसविगारोव्व ।।' दर्शन-प्रतिमाधारी श्रावक का स्वरूप -
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/4- पृ. - 163
' पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/5 - पृ. पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/6 - पृ. - 166
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