Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अतिथि -संविभागव्रत
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण में श्रावकधर्मविधि - पंचाशक में बारहवें अतिथि संविभागव्रत के विषय में चर्चा की है ।
अण्णाईणं सुद्धाणं कप्पणिज्जाण देस काल जुतं ।
दाणं जईणं मुचियं गिहीण सिक्खावयं भणियं । । '
. साधुओं को न्याय से प्राप्त निदोष प्रसंगोंचित अन्न पानी औशध आदि का देशकाल के अनुसार उचित मात्रा में दान करना श्रावक का चौथा अतिथि - संविभाग नामक शिक्षाव्रत कहा गया है ।
अतिथि का सामान्य अर्थ किया जाता है- जिसके आने की तिथि निश्चित नहीं है। अतिथि में सामान्यतः सुसाधुओं की गिनती आती है, क्योंकि वे आहार हेतु अप्रत्याशित आते हैं, अर्थात् बिना कहे व बिना निमन्त्रण के आते हैं। उन्हें निमन्त्रण देने पर वे नहीं आते और आने का संकेत भी नहीं करते हैं ।
संविभाग अपने विभाग में से सम् + विभाग, अर्थात् बराबर का विभाग करना संविभाग है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि अपने विभाग में से सम्यक् प्रकार से विभाग करके आने वाले अतिथि को आहारादि प्रदान करना अतिथि - संविभाग है ।
आज आहार के लिए पधारना है,
वर्त्तमान में कई स्थानों में प्रचलन है कि श्रावक-श्राविकाएं बारह महीने में एक बार पौषधोपवास करके दूसरे दिन पूरी तैयारी द्वारा एकासन से अतिथि - संविभाग करते हैं और साधुओं को इस प्रकार विनती करते हैंपात्र पूरे लेकर आना है, गोचरी में सभी चीजें लेना है, क्योंकि जो आप लेंगे, वहीं मैं खाऊंगा/खाऊंगी। इसमें पहली बात, निमंत्रण द्वारा लिया गया आहार साधुओं के लिये अकल्पनीय है। दूसरी बात, श्रावक श्रमण को बुलाकर आहार- दान करता है, तो श्रावक का अतिथि–संविभाग अधूरा है । तीसरा, साधु - आहार के लिए साधु अपनी इच्छानुसार जो आहार ग्रहण करें, वही आहार आप करें, परन्तु यह आग्रह करके साधु को आहार नहीं बहरावें कि आपको लेना ही होगा, क्योंकि आप नहीं लेंगे, तो मैं नहीं खा
' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 1 / 31 - पृ. 13
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