Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
उपासकदशांगटीका के अनुसार नहीं देने के भाव से अपनी वस्तु को पराई बताना परव्यपदेश-अतिचार माना गया है।'
चारित्रसार के अनुसार अन्य दाता की वस्तु बताकर दान देने को परव्यपदेश-अतिचार कहते हैं।
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार अपनी देय वस्तु को दूसरे को बताकर, उसके दान से अपने को बचा लेना परव्यपदेश-अतिचार है। 5. मात्सर्य- आचार्य हरिभद्र के पंचाशक-प्रकरण के अनुसार साधु को कोई वस्तु क्रोध और ईर्ष्या के वशीभूत होकर भिक्षा में देना मात्सर्य अतिचार है।
___ उपासकदशांगटीका के अनुसार ईर्ष्यावश आहारादि देना, जैसे- अमुक व्यक्ति ने अमुक दान दिया है, तो मैं इससे कम नहीं हूँ- इस भावना से दान देना या क्रोधपूर्वक भिक्षा देना मात्सर्य कहा गया है।
चारित्रसार में आहार देते हुए भी अनादरभावपूर्वक देना मात्सर्य है।
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार दान देते हुए भी आदर न रखना, अथवा दूसरे के दान-गुण की ईर्ष्या से दान देने के लिए तत्पर होना मात्सर्य-अतिचार है।' अतिथि - जिसके आने की कोई तिथि नहीं, जो कभी भी घर आ सकता है, वह अतिथि है।
___ अतिथि सत्कार का महत्व भारतीय-परम्परा में भरपूर है। प्राचीन परम्परा यह थी कि लोग गांव के चौराहों पर जाते थे, यह देखने के लिए कि कोई अतिथि है
1 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/56 - पृ. - 54
चारित्रसार – चामुण्डाचार्य - पृ. - 14 3 तत्त्वार्थ-सूत्र – आ. उमास्वाति-7/31 – पृ. - 190 * पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/32 - पृ. - 14 5 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि-1/56 - पृ. - 54 6 चारित्रसार – चामुण्डाचार्य - पृ. सं. - 14 तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-7/31 - पृ. - 190
327
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org