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होंगे, इसलिए आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक में कहा है कि आपने जो सम्यक्त्व ग्रहण किया है, उसकी स्मृति रखें व मिथ्यात्व से घृणा करें।
___श्रावक की दिनचर्या - हरिभद्र की दृष्टि में । आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में श्रावक को निर्देश दिया है कि सम्यक्त्व आदि व्रतों के पालन के लिए प्रत्येक दिन प्रयत्न करना चाहिए। व्रतों को सुरक्षित रखने के लिए सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व के स्वरूप की समीक्षा करते रहना चाहिए कि सम्यक्त्व के क्या गुण है व मिथ्यात्व के क्या दोष है ? क्योंकि सम्यक्त्व के गुणों का चिंतन, अर्थात स्वयं में सम्यक्त्व के गुणों का प्रवेश और मिथ्यात्व के दोषों का सम्यक् चिंतन स्वयं से दोषों की बिदाई है। जो सम्यक्त्वी जीव सत्य को सत्य व असत्य को असत्य जानता है, उसका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यक्त्व के सहारे ही आत्मा अयोगी-दशा, अर्थात मोक्ष के शिखर तक पहुंच सकती है, संसार-भ्रमण को सीमित करती है, अर्थात संसार को अर्द्धपुद्गल-परावर्तकाल तक सीमित कर लेती है, अथवा 9,5,3,2 और 1 भाव में मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। मुक्ति प्राप्त करने में यह सम्यक्त्व सहयोगी है। सम्यक्त्व के आने के बाद ही जीव निरंतर उत्थान की दिशा में अग्रसर होता है। सम्यग्दर्शन होने से ही जीव कषाय-भावों को नियंत्रित करता है, सम्यक्त्व द्वारा जीव दुःख में भी सुखानुभूति करता है। सम्यक्त्व द्वारा ही जीव संसार को भंवरे के समान फूल के पराग को लेने की तरह लेता है और उड़ जाता है, अर्थात् संसार के भोगों का उपभोग करता है, पर उससे चिपकता नहीं है। सम्यक्त्वी जीव चिंता से रहित रहता है, जबकि मिथ्यात्वी जीव चिंता से ग्रसित रहता है और संसार के भोगों के रस में मक्खी की तरह चिपक जाता है। मिथ्यात्वी अनेक सुख के साधनों की उपस्थिति में भी दुःखी ही रहता है, निरंतर पतन की ओर ही उन्मुख रहता है। उसमें कषाय-भाव तीव्रतम स्थिति में बने रहते हैं। मिथ्यात्वी का संसार में भ्रमण-काल असीम है। मिथ्यात्वी जीव नरक आदि दुर्गतियों में ही अनन्तकाल तक भ्रमण करता रहता है, मिथ्यात्वी का ज्ञान भी मिथ्या ही होता है। वह सत्य को असत्य, असत्य को सत्य समझता है। अतः हृदय में व्रतों के प्रति बहुमान भाव रखते हुए इस प्रकार के चिन्तन से सम्यक्त्व आदि व्रतों को स्थिर रखें- 'तीर्थंकर परमात्मा ने कितना अच्छा मार्ग बताया है। हे भगवन् ! जब तक मैं गृहवास में रहूं, तब
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