Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
प्रतिक्षण क्षीण हो रही आयु के विषय में चिन्तन करना चाहिए, अंजली के जल के समान आयु व्यतीत होती जा रही है, कब श्वास का धागा टूट जाएगा- इसे कोई नहीं जान पाता है। इस प्रकार का चिन्तन करते हुए प्राणीवध आदि पापकार्यों के विपाक की भी विचारणा करना चाहिए कि प्राणीवध आदि के कार्य का परिणाम कितना दुःखद व दारुण है। उसके साथ ही, सद्भावों में होने वाले लाभ के विषय में सोचना चाहिए कि क्षणभर में शुभ अध्यवसायों से जीव अनेक शुभ कर्मों का बन्ध करता है, क्षणभर में अशुभ अध्यवसायों से अनेक अशुभ कर्मों का बन्ध करता है। प्रसन्नचंद्रराजर्षि के जीवन की एक घटना है। जब उन्होंने स्वराज्य पर शत्रु–सेना के आक्रमण की बात सुनी, तो वे मन ही मन युद्ध करने सम्बन्धी सोचने लगे। शत्रु के प्रति द्वेष–अध्यवसाय से क्षणभर में ही उन्होंने नारकी में जाने योग्य कर्मदलिक एकत्रित कर लिए। युद्ध करते हुए उन्हें महसूस हुआ कि सारे शस्त्र समाप्त हो गए। अरे ! शस्त्र समाप्त हो गए, तो क्या हुआ ? मुकुट तो है। ज्यों ही मुकुट लेने के लिए मस्तिष्क पर हाथ गया, तब विचार आया कि अरे ! मैं तो मुनि हूँ। किससे युद्ध कर रहा हूँ ? मुझे तो अपने आत्म-शत्रुओं से युद्ध करना है। बाहर के शत्रु से कैसी लड़ाई ? क्षणभर के इस शुभ चिन्तन से केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। क्षणभर के अशुभ परिणामों से नरक आदि भी मिल सकता है एवं क्षणभर के शुभ अध्यवसायों से स्वर्ग एवं अपवर्ग भी मिल सकता है।
इस प्रसंग से यह ज्ञात होता है कि एक क्षण में किए गए शुभ-अशुभ चिन्तन का सुखद या दुःखद परिणाम होता है, अतः इस प्रकार के धर्म से होने वाले परलोक-सम्बन्धी विविध लाभों के विषय में चिन्तन करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की उन्पचासवीं गाथा में कहा हैबाहगदोसविवक्खे धम्मायरिए य उज्जयविहारे। एमाइचित्तणासो संवेगरसायणं देइ ।।'
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/49- पृ. - 19 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/50 - पृ. - 20
340
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org