Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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जैनधर्म के प्राचीन रूप को व्रात्यधर्म में जाना जा सकता है । व्रात्य वह कहलाता है, जो व्रतों का पालन करता है, इसलिए जैनधर्म में श्रावक को व्रती और साधु को महाव्रती कहा जाता है।
जैनधर्म की जो व्रत - व्यवस्था है, इसकी क्या प्रासंगिकता है- यह बात आज किसी से भी छिपी नहीं है। श्रावक-धर्म के अणुव्रतों में सर्वप्रथम स्थान अहिंसा का है। इस आणविक युग में अहिंसा ही एकमात्र ऐसा सिद्धांत है, जिसके माध्यम से मानव-जाति के एक अस्तित्व का रक्षण सम्भव है। आज हम देखते हैं कि हिंसा के परिणामस्वरूप मनुष्य अपने आत्म-रक्षण के लिए शस्त्रों का संग्रह करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज हमें मानव के मानवीय मूल्यों पर उतना विश्वास नहीं रह गया है, जितना शस्त्रों पर ।
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आज हम शस्त्रों के भय के आधार पर शान्ति की स्थापना करना चाहते हैं, किन्तु हम यह स्पष्ट देख रहें हैं कि शस्त्रों माध्यम से मानव एवं मानवीय मूल्यों का संरक्षण सम्भव नहीं है । शस्त्र प्रतिपक्षी के मन में भय उत्पन्न करते हैं, अतः अधिक बलशाली शस्त्रों का निर्माण कर कोई भी देश अपनी सुरक्षा की व्यवस्था बताना चाहता है, किन्तु इस सम्बन्ध में आचारांग - सूत्र में भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि शस्त्रों में एक से एक भयंकर दूसरे शस्त्रों का निर्माण सम्भव है, किन्तु अहिंसा ही एक ऐसी शक्ति है, जो शस्त्रों की इस दौड़ को समाप्त कर सकती है। इस प्रकार, आज वैश्विक-पर्यावरण में आवश्यकता शस्त्रों की नहीं, अपितु पारस्परिक विश्वास की है ।
इसी प्रकार, सत्याणुव्रत की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि आज विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में अप्रामाणिकता का बोलबाला है । अप्रामाणिकता हमारे पारस्परिक विश्वास को भंग कर देती है । आज विश्व में सबसे अधिक आवश्यकता पारस्परिक - विश्वास की है और यह विश्वास हमारी सत्यनिष्ठा या प्रामाणिक जीवन-शैली से ही सम्भव है । भगवान् महावीर ने सत्याणुव्रत की व्यवस्था केवल इसलिए की थी कि पारस्परिक-विश्वास का भंग न हो। यही कारण है कि सत्याणुव्रत के अतिचारों की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि व्यक्ति को पत्नी और मित्र का विश्वास कभी भी भंग नहीं करना चाहिए। किसी की रहस्यमय बातों को, जो उसने विश्वास कर प्रकट कर दी
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