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प्रचलित हैं, या किस प्रकार की भ्रांतियों का उद्भव होने की संभावना है- इन दोनों पक्षों के लिए गहन चर्चा की है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हरिभद्र का दृष्टिकोण केवल वर्णनात्मक या विवेचनात्मक नहीं है, अपितु उनके पास एक समीक्षात्मक – दृष्टि भी है, जिसके आधार पर वे प्रत्येक व्रत की विशेषताओं की चर्चा करते हुए उसमें जन-सामान्य के क्या आक्षेप हो सकते हैं- इसकी भी विस्तृत चर्चा करते हैं । मात्र इतना ही नहीं, बल्कि उन आक्षेपों का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है, उसको भी बताने का प्रयत्न करते हैं।
वस्तुतः, आचार्य हरिभद्र की शैली न केवल वर्णनात्मक है, अपितु उनके पास एक समीक्षात्मक दृष्टि भी है। यही कारण है कि उन्होंने श्रावकधर्मविधि –प्रकरण नामक प्रथम पंचाशक में प्रत्येक व्रत के सन्दर्भ में जन-सामान्य के बीच कौन-कौनसे प्रश्न उठ सकते हैं- इसका प्रस्तुतीकरण और समाधान- दोनों ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। संक्षेप में कहें, तो वे प्रत्येक व्रत और उसके अतिचारों की गहन समीक्षा करते हैं और यह बताते हैं कि यदि इन अतिचारों से विमुख होने का प्रयत्न नहीं किया जाए, तो वे हमारी धर्म-साधना को निरर्थक भी बना सकते हैं ।
दूसरे, आचार्य हरिभद्र के इस पंचाशक - प्रकरण की यह भी विशेषता है कि इसमें श्रावक के प्रत्येक व्रत और उनमें अतिचारों का समग्रता से वर्णन हो रहा है, फिर भी इतना विशेष है कि हरिभद्र का यह समस्त विवेचन क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित है। इसी प्रकार, श्रावक-धर्म के इस विवेचन में एक व्रती श्रावक की दिनचर्या कैसी होना चाहिएइसका भी विस्तार से उल्लेख किया है।
हमारी दृष्टि में श्रावकविधि - पंचाशक - प्रकरण एक ऐसा ग्रन्थ है, जो व्यक्तियों को एक नई दिशा दे सकता है, इसलिए यहाँ यह बताना आवश्यक है कि श्रावक धर्म के इस व्रत की प्रासंगिकता क्या है ?
व्रत-व्यवस्था की प्रासंगिकता
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