Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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प्रारम्भ सम्यक्त्व अर्थात् सही दिशाबोध से होता है, अतः जैनधर्म में सम्यग्दर्शन के पश्चात् ही अणुव्रतों को स्वीकार किया जाता है, तत्पश्चात् व्यक्ति गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों को ग्रहण करता है। श्रावक बारह व्रतों का सम्यक् रूप से निरतिचार पालन करते हुए, अन्त में अपने वैराग्य भाव को परिपुष्ट करने के लिए धन, परिवार, शरीर आदि सम्बन्धी ममत्व-भाव से निवृत्त होकर एकान्त धर्मस्थल में जाकर शास्त्रोक्त-विधि के अनुसार श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं का समाचरण करता है। प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ
प्रश्न उठता है कि प्रतिमा किसे कहते हैं ? प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ हैप्रतिज्ञा–विशेष, तप-विशेष, अभिग्रह-विशेष । दूसरे अर्थ में
प्र - प्रमाद-विषय-कषायरूपी संसार-समुद्र से । ति - तिराने के लिए। मा – जो व्रतरूपी महायान को चलाने के लिए मांझी है, वही प्रतिमा है।
प्रतिमा स्थित श्रावक श्रमण के समान व्रत-विशेषों का पालन करता है, अर्थात् प्रतिमाओं को धारण करने वाले श्रावक का जीवन श्रमण के तुल्य होता है। आध्यात्मिक विकास के प्रत्येक चरण पर लिए गए नियमों पर अटल रहना ही प्रतिमा है।
प्रतिमाएँ श्रावक-जीवन में की गई साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ है, जिस पर क्रम से चढ़ता हुआ साधक आत्म-विकास की अंतिम सीढ़ी तक पहुँचता है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के दसवें पंचाशक उपासक-प्रतिमाविधि में भावस्तव का विवेचन किया है। फिर भावस्तव के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन करने के पूर्व वे अपने आराध्य का स्मरण मंगलाचरण के रूप में कर रहे हैं
णमिऊण महावीरं भव्वहियट्ठाएँ, लेसओ किषि। वोच्छं समणोवासगपडिमाणं सुत्तमग्गेणं ।।'
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/1 - पृ. ' पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/2 - पृ. - 164
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