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बारह द्वारों से मदिरा के घट की भांति रिस (बह) रहा है। वह शरीर मल से भी अधिक अपवित्र है, केवल अस्थि-पंजररूप है । इस प्रकार के चिन्तन से अब्रह्म से मन ग्लानि से भर जाएगा और ब्रह्मचर्य के प्रति आकृष्ट होकर जीवन संयमित होने लगेगा ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में यह भी निर्देश दिया गया है कि अब्रह्म त्याग करने वालों पर आन्तरिक - प्रेम रखना चाहिए, क्योंकि त्यागी एवं संयमी के प्रति प्रेम रखने वाला मोक्ष - मार्ग में गमन करता हुआ मुक्ति के निकट पहुँच जाता है। आचार्य हरिभद्र ने उपदेश के महत्व को बताते हुए कहा है कि भव्य आत्माओं के जिस अज्ञानरूपी अन्धकार को चन्द्र और सूर्य की कान्ति भी दूर नहीं कर सकती है, वह अन्धकार इस अल्प उपदेश को निरन्तर सुने जाने से नष्ट हो जाता है।
अब्बंभे पुण विरई मोहदुगुंछा सत्तत्तचिन्ता य। इत्थीकलेवराणं तव्विरएसुं च बहुमाणो ।।2
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण की सैंतालीसवीं गाथा में पाप - प्रवृत्ति से मुक्त होने के लिए कैसा चिन्तन करना चाहिए, इस विषय में सूचना दी है
सुत्तविउद्वस्य पुणो सुहुमपयत्थेसु चित्तविण्णसो ।
भवठिइणिरुवणे वा अहिगरणोवसमचित्ते वा । । '
रात्रि पूर्ण होने में पर्याप्त समय दोष हो, तभी जाग्रत होकर श्रावक को कर्म, आत्मा आदि सूक्ष्म पदार्थों के स्वरूप का तल्लीनतापूर्वक सम्यक् चिन्तन करना चाहिए, साथ ही संसार के अनित्य-स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए इन क्लेश आदि रूप पापकर्मों से कब और कैसे निवृत्ति होगी - ऐसा चिन्तन शान्तचित्त से करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण की अड़तालीसवीं गाथा में संसार की
क्षणभंगुरता का एवं क्षण के महत्व का विवेचन करते हुए कहा है
आउयपरिहाणीए असमंजसचेट्ठियाण व विवागे । खणलाभदीवणाए धम्मगुणेसुं च विविहेसु ।।2
'पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1 /47 – पृ. 19 2 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1 /48 - पृ. - 19
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