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प्रतिक्षण होने वाली ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जिन- पर्यायों से समता-भाव की उपलब्धि होती है, वह सामायिक है । इसलिए सामायिक में मन, वचन और काय से सभी पापों का त्याग करके स्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति करना चाहिए ।' गृहस्थ-धर्म में सामायिक की साधना करने की प्रेरणा देते हुए विशेषावश्यकभाष्य में कहा है
सावज्जजोग परिक्खणट्ठा सामाइयं केवलियं पसत्थ ।
गिहत्थधम्मा परमंति नच्चा कुज्जा बुधे आय हियं परत्था । ।
अर्थात्, सावद्य-योग (पापकर्म) से पूर्णतः मुक्त होने के लिए ही एक प्रशस्त मार्ग सामायिक है और गृहस्थ-धर्म में इसे सर्वोच्च समझकर बुद्धिमान् नर मोक्ष के लिए इस अनुष्ठान को अवश्य करें । 2
डॉ. सागरमल जैन ने सामायिक के स्वरूप का कथन करते हुए कहा हैसामायिक समत्व की साधना है। सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि में चित्तवृत्ति का समत्व ही सामायिक है। सामायिक के महत्व को दर्शाते हुए उन्होंने कहा है कि आज के युग में जब मानव मानसिक तनावों की स्थिति में जीवन जी रहा है, सामायिक - व्रत की साधना की उपयोगिता सुस्पष्ट हो जाती है।
डॉ. सागरमल जैन ने वर्तमान में सामायिक - साधना की स्थिति का चित्रण करते हुए कहा कि आज सामायिक का स्वरूप वेश - परिवर्तन के साथ बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों स दूर हो जाना इतना ही है । यह सामायिक का बाह्यरूप तो हो सकता है, किन्तु उसकी अन्तरात्मा नहीं । इस पर चिन्ता व्यक्त करते हुए उन्होनें कहा है कि आज हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती जा रही है और वह एक रूढ़ क्रिया - मात्र बनकर रह गई है। सामायिक से मानसिक तनावों का निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति अपनाना आज के युग की महती आवश्यकता है।
1 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/25 - पृ. 10
2 विशेषावश्यक - भाष्य - श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण - गाथा 2681 - पृ. - 373
3 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दल ग्रन्थ - डॉ. सागरमल जैन - पृ. - 332 अनुयोगद्वार - आर्यरक्षितसूरि - सूत्र - 27
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