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तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार सर्वदा के लिए दिशा का परिमाण निश्चित कर लेने के बाद भी प्रयोजन के अनुसार समय-समय पर क्षेत्र का परिमाण सीमित करके उसके बाहर पाप-प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्त होना देशावकासिकव्रत है।'
रत्नकरण्डक-श्रावकाचार, चारित्रसार, अमितगति-श्रावकाचार, सागारधर्मामृत आदि में दिग्वत में ग्रहण किए गए व्यापक क्षेत्र की मर्यादा का अणुव्रतधारी श्रावकों द्वारा प्रतिदिन संकोच करना देशावकासिकव्रत बताया गया है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में, जो लोभ और काम के विकार को शमन करने के लिए पापों को छोड़ने के लिए वर्ष आदि का प्रमाण करके पूर्व में किए गए सर्व दिशाओं के परिमाण का जो फिर से संवरण किया जाता है, उसे देशावकासिकव्रत कहा गया है।'
तत्त्वज्ञान-प्रवेशिका के अनुसार परिग्रह परिमाण और दिशा- परिमाण-व्रत के सम्बन्ध में यावज्जीवन के लिए की गई मर्यादा को और अधिक सीमित करने के लिए देशावकासिकव्रत ग्रहण किया जाता है।
दिशा-परिमाण में गमनागमन का क्षेत्र यावज्जीवन के लिए सीमित किया जाता है और यहाँ उस सीमित क्षेत्र को एक-दो दिन आदि के लिए और अधिक सीमित कर लिया जाता है, जिससे उपभोगादि सामग्री की सीमा भी संक्षिप्त हो जाती है। इस प्रकार उसका जीवन पवित्र बनता है।'
___ योगशास्त्र के अनुसार दिग्व्रत में गमनागमन के लिए जो परिमाण नियत किया गया है, उसे दिन तथा रात्रि में संक्षिप्त कर लेना देशावकासिकव्रत है।
इच्छाओं को सीमित करने के लिए इस व्रत का विधान है। यह व्रत प्रथम गुणव्रत-दिग्परिमाणव्रत से सम्बन्ध रखता है। दिग्व्रत में जिन दिशाओं में जाने का
(घ) सागारधर्माऽमृत - पं. आशाधर-5/5 5 कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेय - 66,67
तत्त्वज्ञान-प्रवेशिक - प्र. सज्जनश्री - भाग-3-पृ. -25
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