Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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10. विष-वाणिज्य- शस्त्र, विष, अफीम, भांग आदि मादक पदार्थ तथा यन्त्र, लोहे के शस्त्र आदि के व्यापार को 'विषवाणिज्यकर्म' कहते हैं, जो श्रावकों के लिए व्यापार हेतु उपयुक्त नहीं है। 11. यन्त्रपीलन-कर्म- मिल के यन्त्र, घानी, कोल्हू आदि यन्त्रों द्वारा तिल, सरसों आदि पीलने का धन्धा करना ‘यन्त्रपीलन-कर्म' कहलाता है। यह व्यापार श्रावकों के लिए निषेध
हैं।
12. निर्लान्छन-कर्म- मनुष्य, पशु-पक्षी के नाक आदि अंग-उपांग के छेदन-भेदन का व्यापार करना तथा बैल आदि को नपुंसक बनाने के व्यापार को 'निर्लान्छन-कर्म' कहते हैं। श्रावक के लिए यह व्यापार प्रतिषेध किया गया है। 13. दावाग्नि (दवदान)-कर्म- जंगल में आग लगाना, जिससे त्रस जीवों का घात हो सकता हो, ऐसी अग्नि को 'दावाग्नि-कर्म' कहते हैं। यह व्यापार श्रावकों के लिए अनुपयुक्त है। 14. जलशोषण-कर्म- तालाब, झील, सरोवर, कूप, नदी, कुण्ड आदि जलाशयों को सुखाने का व्यापार 'जलशोषण-कर्म' है, अतः श्रावक ऐसा व्यापार न करें। 15. असती जनपोषण-कर्म- व्यभिचार के लिए वेश्या को नियुक्त करना, शिकार आदि के लिए कुत्ते आदि को पालना, मैना, तोता, कबूतर, चिड़िया, मुर्गी, मयूर, बिल्ली, खरगोश को पालना, जुआरी, चोर आदि को व्यापार हेतु पालना, अथवा शौक से पालना तथा दुःशील स्त्रियों को रखना 'असती जनपोषण-कर्म' है। ऐसा व्यापार श्रावकों के लिए निश्चित रूप से मना है।
पंचाशक के अनुसार इन पन्द्रह प्रकार के कर्मों को करने से हिंसा अवश्यम्भावी है और व्रत-पालन में अवरोध है, अतः इन पन्द्रह प्रकार के कर्मदानों का त्याग श्रावक करता है, जिससे उसके व्रत-पालन में अवरोध उपस्थित नहीं होता है। अतः उपभोग-परिभोग-विरमण-व्रत का पालन करने के लिए श्रावक पांच अतिचारों से व पन्द्रह कर्मदानों से बचने का पूर्ण प्रयत्न करे। समग्र जीवन-व्यवहार को संयमित-परिमित करने का यह व्रत है।
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