Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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3. अपक्व आहार - जो भोज्य-पदार्थ पका नहीं है, अर्थात् कच्चा है, वह 'अपक्व आहार' कहलाता है, जैसे- चना, मटर, ककड़ी, टमाटर आदि पूरे नहीं पके हैं तथा उनका सलाद आदि बनाकर तैयार किया गया है, तो पूरा न पकने के कारण वह अपक्व आहार है, अतः ऐसा आहार भूल से करने पर भी व्रतधारी श्रावक को अतिचार लगता है तथा जानबूझकर करने में अनाचार का सेवन होता है। उपासकदशांगटीका में भी यही बात कही गई है। 4. दुष्पक्व आहार- जो पूर्णतः नहीं पका है, एसा आहार 'दुष्पक्व' कहलाता है, जैसे- छिलके सहित भुट्टा, मटर की फलियाँ, गेहूँ, ज्वार की पौंख आदि जो पूरे पकते भी नहीं है एवं उनमें त्रस आदि जीवों की हिंसा की पूरी सम्भावना रहती है, ऐसा आहार बुद्धिमान् व्रतधारी श्रावक नहीं करें। 5. तुच्छ आहार- जो पदार्थ खाने में कम उपयोग वाला एवं फेंकने योग्य अधिक हो, जैसे- सीताफल, गन्ना, बेर आदि ऐसे पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि जिसके खाने में अधिक हिंसा हो, उन पदार्थों का सेवन भी नहीं करना चाहिए, जैसे- खसखस के दाने, शामक के दाने आदि। कर्म-सम्बन्धी अतिचार- पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्रसूरि ने सातवें व्रत में भोजन-आश्रित अतिचारों का विवेचन करने के पश्चात् कर्म-सम्बन्धी पन्द्रह अतिचारों का उल्लेख किया है, जो निम्न प्रकार से हैं
1. अंगार-कर्म 2. वन-कर्म 3. शकट-कर्म 4. भाटक-कर्म 5. स्फोट-कर्म 6. दन्त-वाणिज्य 7. लाक्ष-वाणिज्य 8. रस-वाणिज्य 9. केश- वाणिज्य 10. विष–वाणिज्य 11. यन्त्र-पीलन 12. निर्लान्छन-कर्म 13. दावाग्निदपन 14. जल-शोशण 15. असती-जनपोषण। इन पन्द्रह प्रकार के कर्मों को करना कर्म सम्बन्धी अतिचार है। इन अतिचारों को विशेष रूप से समझ लेना चाहिए। 1. अंगार-कर्म- अग्नि को प्रज्वलित कर कोयला, लोहा, ईंट, चूना आदि बनाकर कुम्हार, लुहार, ठठेरा आदि का कार्य करके आजीविका कमाने वालों के कर्म को अंगार-कर्म माना है, अर्थात् जिस व्यापार में भट्टी जलाना पड़ती हो, ऐसा व्यापार श्रावक
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