Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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जिनयात्रा शब्द का अर्थ - जिन, अर्थात् जिन्होनें अपनी विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। ऐसे जिनेश्वर परमात्मा की यात्रा करना जिनयात्रा है। जिनयात्रा - जो नव पदार्थ का प्ररूपण करते हैं, ऐसे जिनेश्वर परमात्मा की यात्रा करना जिनयात्रा है। जिन-यात्रा - जिन को लक्ष्य में रखकर यात्रा करना जिनयात्रा है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र यात्राविधि पंचाशक की चौथी गाथा में जिनयात्रा का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
जो महोत्सव जिनों को उद्दिष्ट करके किया जाता है, वह जिनयात्रा है। जिनयात्रा की विधि दानादि रूप है। महोत्सव में करने योग्य दानादि का निर्देश - श्रावक को अपनी शक्ति, सम्पत्ति, सन्मति, समय, सद्भाव आदि को जिनयात्रा-महोत्सव में लगाना चाहिए, क्योंकि जिनयात्रा-महोत्सव में लगाने पर ही इनकी सार्थकता है तथा इनकी सार्थकता से ही जीवन की सफलता है। जीवन की सफलता के लिए आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की पाँचवीं गाथा में' दान आदि सत्कार्यों की चर्चा करते हुए कहते हैं
__जिनयात्रा महोत्सव में यथाशक्ति दान, तप, शरीर-शोभा, उचित गीतवाद्य, स्तुतिस्तोत्र, प्रेक्षणक (नाटक) आदि कार्य करना चाहिए। यह द्वार-गाथा है। आगे इन द्वारों का क्रमशः विवेचन किया जा रहा है। दान-द्वार का विवरण - श्रावक महोत्सव हेतु तो दान करता ही है, परन्तु महोत्सव के निमित्त अन्य के लिए भी दान करने की प्रवत्ति बताई गई है, क्योंकि इससे भी जिन-शासन की प्रभावना होती है। यदि इस प्रकार से दान नहीं देते हैं, तो इससे जिनधर्म की अवहेलना होती है। अवहेलना होने का मुख्य कारण है कि महोत्सव में तो लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं, इसमें स्वधर्मी वात्सल्य, सजावट आदि भी करते हैं, परन्तु यदि दीन-दुःखियों को दान नहीं देते हैं, तो वे इसकी भी निन्दा करते हैं और यह भी
2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/4 - पृ. - 149 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-9/5 - पृ. - 150 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/6 - पृ. - 150
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