Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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या श्रावक नहीं कह सकते ? हमने पूर्व में भी, श्रावक किसे कहते हैं- इसकी चर्चा की है। व्रत के अभाव में सम्यग्दृष्टि को श्रावक नहीं कहा गया। उसे द्रव्य से श्रावक कह सकते हैं, पर भाव से श्रावक नहीं। चूंकि श्रावक का गुणस्थान पाँचवाँ है और सम्यगदृष्टि का स्थान चौथा, इसी कारण व्रत के अभाव में (चारित्रमोहनीय-कर्म के क्षय आदि के अभाव में) सम्यग्दृष्टि को श्रावक नहीं कह सकते।
प्रश्न हो सकता है कि श्रावकत्व के अभाव में सम्यग्दृष्टि धर्म-श्रवण करता है, पूजा, अर्चा, वन्दन आदि करता ही है, तो उसे श्रावक क्यों नहीं कहा जाता ? यह सत्य है कि उसकी दृष्टि सम्यग् हो गई है, उसे सत्य-असत्य का विवेक हो गया है, अतः वह श्रद्धा के साथ शुभ क्रियाएँ करता है। सम्यग्दृष्टि इन क्रियाओं को करने योग्य तो है, परन्तु श्रावक की गिनती में नहीं है। देव, गुरु, धर्म की आराधना करने वाला सम्यक्त्व की प्राप्ति के साथ या उसके तुरन्त बाद चारित्रमोह आदि का क्षयादि क्यों नहीं कर लेता ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने पाँचवीं गाथा में कहा है
परिणाम-भेद के कारण ऐसा होता है। दर्शन-मोह के क्षयोपशम के लिए जो अध्यवसाय चाहिए, उससे विशेष निर्मल परिणाम चारित्रमोह के क्षयोपशम के लिए चाहिए, अतः जब ऐसे विशेष अध्यवसाय होंगे, तब स्वतः चारित्र-मोहनीय का क्षयोपशम हो जाएगा। छठवीं गाथा में यह बताया है कि श्रावक को व्रत स्वीकार करने की इच्छा कब जाग्रत होती है, अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् आयुकर्म के अतिरिक्त मोहनीय आदि सात कर्मों की दो से नौ पल्योपम जितनी स्थिति शेष रहती है, तब भव-समुद्र से पार होने के लिए अणुव्रतरूपी यान में बैठने के भाव आते हैं। सातवीं गाथा में श्रावक की प्राथमिक भूमिका की चर्चा प्रारम्भ करते हुए अणुव्रत एवं उत्तरगुणों का विवरण प्रस्तुत किया है कि अणुव्रत पाँच होते हैं- स्थूल-प्राणातिपात, विरमण आदि तथा इन अणुव्रतों को सुरक्षित रखने के लिए दिशाव्रत आदि सात उत्तरगुण हैं।'
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/5 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/6 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/7 -
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