Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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पंचाशक-प्रकरण मेँ अदत्तादान में दो भेद किए हैं। नमक, पशु आदि की
चोरी करना सच्चित- सम्बन्धी चोरी है। स्वर्ण आदि की चोरी करना अचित - सम्बन्धी चोरी है। सावयपण्णत्तिवृत्ति में विशेष रूप से और दो विभाग किए गए हैं- 1. स्थूल चोरी, 2. सूक्ष्म चोरी। जिस वस्तु के ग्रहण करने पर चोरी का आरोप लग सकता है, उसे दूषित अध्यवसाय (परिणाम) पूर्वक ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान है एवं जिस चोरी के करने पर व्यक्ति चोर नहीं समझा जाता, उसे सूक्ष्म अदत्तादान कहते हैं साथ ही, चोरी के भाव को भी सूक्ष्मचौर्यकर्म ही कहा जाता है।
उक्त अदत्तादान सचित व अचित की अपेक्षा से भी दो प्रकार का बताया गया है । किसी विशिष्ट क्षेत्र आदि में जिस किसी भी प्रयोजन से रखे गए दास-दासी, हाथी-घोड़े आदि को स्वामी की अनुमति के बिना ग्रहण करना सचित्तादान कहलाता है एवं वस्त्र, सोना और चांदी आदि का उसके स्वामी की अनुमति के बिना चोरी के भाव से ग्रहण करना अचित्तादान है । यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जिस वस्तु का स्वामी न हो, वह वस्तु रास्ते में पड़ी हो और चोरी करने के भाव नहीं है, क्या उसे उठाना भी चोरी है ?
माना कि यह चोरी नहीं है, परन्तु जिसकी वस्तु है, यदि वह उसे वहाँ खोजने के लिए आए और उसे वह वस्तु नहीं मिले, तो उसके मन में तो संक्लेश होगा ही, अतः हमारे निमित्त से किसी को संक्लेश उत्पन्न हो, तो भी वह चोरी है। इसी प्रकार संक्लेश रूप परिणाम के साथ जो भी वृत्ति होती है, वहाँ चोरी है, अतः उचित तो यह है कि परद्रव्य की ओर दृष्टिपात करें ही नहीं ।
अस्तेयानुव्रती श्रावक स्थूल चोरी, अर्थात् जिसे सामाजिक व्यवहार की दृष्टि से चोरी समझा जाता है, उसे या दूसरों से चोरी करवाने का त्यागी होता है ।
श्रावक स्थूलचौर्यकर्म से विरत तो होता ही है, साथ ही लोक-निन्द्य एवं राजदण्ड के योग्य चौर्यकर्म का भी त्यागी होता है। चोरी करने पर लोक में वह चोर के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है, अतः लोक की ओर से निन्दा तथा राज की ओर से दण्ड
8 पंचाशक - प्रकरण आचार्य हरिभद्रसूरि - 13 / 2 - पृ. 5
' सावयपण्णत्तिवृत्ति - आचार्य हरिभद्रसूरि - गाथा - 265 - पृ. 157
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