Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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3. धन-धान्य का बन्धन- पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने बताया है कि परिमाण से अधिक धन-धान्य आदि का संग्रह करके अलग रख देने से भी धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण होता है। उपासकदशांगटीका में आचार्य अभयदेवसूरि कहते हैंमणि, मोती, हीरे, पन्ने और धन तथा गेहूं, चावल, जौ, चने आदि धान्य का जो परिमाण किया है, उसका उल्लंघन करना धन-धान्य- परिमाणातिक्रमण है।' 4. द्विपद-चतुष्पद कारण- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में द्विपद दास-दासी, पुत्रादि दो पैर वाले प्राणियों एवं गाय इत्यादि चार पैर वाले प्राणियों के गर्भाधान एवं पुंसवन से उनकी संख्या का उल्लंघन होने से द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रम बताया है। उन्होनें पंचाशक-प्रकरण की टीका में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है जिसके अनुसार यदि व्यक्ति ने अणुव्रत लेते समय 12 महीने के लिए द्विपद-चतुष्पद की संख्या निधार्रित कर ली। उसी बीच किसी का जन्म हो, तो संख्या परिमाण से अधिक हो गई। यदि उसे रखते हैं, तो अतिचार लगता है, अतः अणुव्रतियों के लिए यह संकेत दिया है कि संख्या परिमाण से अधिक न हो, इसलिए अमुक समय के बाद ही गाय इत्यादि का गर्भाधान करना चाहिए, जिससे 12 महीने (निर्धारित अवधि) के बाद ही जन्म हो।'
उपासकदशांगटीका में आचार्य अभयदेवसूरि ने द्विपद-मनुष्य, दास, दासी, चतुष्पद गाय आदि पशु के सम्बन्ध में परिमाण व्रत स्वीकार करते समय जो सीमा निर्धारित की है, उस सीमा का उल्लंघन करने को द्विपद-चतुष्पद -परिमाणातिक्रमण-अतिचार बताया है, जो पंचाशक के अनुसार ही है। तत्त्वार्थ-सूत्र में द्विपद-चतुष्पद-अतिचार का ही वर्णन प्राप्त होता है। चारित्रसार में पंचाशक के विपरीत
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/18 - पृ. -7 2 उपासकदशांग टीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/49 - पृ. - 45 ' तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-1/24 * चारित्रसारश्रावकाचार संग्रह - चामुण्डाचार्य - 241
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