Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
पंचाशक-प्रकरण में स्पष्ट किया है कि श्रावक इन पांच प्रकार के परिग्रहों के परिमाण का निर्धारण कर उनकी सीमा का अतिक्रमण नहीं करे। पांचवे अणुव्रत में कहा है कि श्रावक सामान्य या क्षेत्र आदि के परिमाण का अतिक्रमण नहीं करता है, किन्तु यदि कभी किसी कारणवश परिमाण का अतिक्रमण हो गया है, तो उसके लिए प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित व्रतों में कभी-कभी अतिचार लगने के लिए है, पर हर दिन लगने वाले दोषों के लिए प्रायश्चित्त नहीं है। हर दिन व्रतों को दोष लगना या लगाना अतिचार नहीं है, वह तो अनाचार है, अतः आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में यही कहा है कि श्रावक परिमाण से अधिक परिग्रह संचय नहीं करें। पंचाशक प्रकरण के अनुसार दर्शाई गई पांच श्रेणियां यहां निम्नानुसार स्पष्ट की जा रही
हैं
1. क्षेत्र-वास्तु योजना- एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र से या एक वास्तु (घर) को दूसरे घर से जोड़कर उसके परिमाण का उल्लंघन करना भी अतिचार है।'
उपासकदशांगटीका में अभयदेवसूरि ने खेती आदि के लिए जितनी भूमि रखी है, उस परिमाण का उल्लंघन करना, क्षेत्रवास्तु परिमाणातिक्रमण है। चारित्रसार में भी आचार्य हरिभद्र के पंचाशक-प्रकरण के अनुसार ही वर्णन है।
तत्त्वार्थ-सूत्र में भी पंचाशक के अनुसार ही अतिचारों का वर्णन है।' 2. हिरण्य-सुवर्ण-परिमाणातिक्रम - पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि परिमाण से अधिक अपनी चांदी और सोना दूसरे को रखने के लिए देना अतिचार है। परिग्रह-परिमाण व्रत का धारक अणुव्रती यही सोचता है कि मुझे मेरे नाम से इतना रखने का नियम है, पर अधिक कमाकर दूसरे के ब्याज में देने का व्रत नहीं है, अथवा किसी के पास नहीं रखने का व्रत मैंने नहीं लिया है, अतः इस प्रकार करने से मेरे व्रत में दोष भी नहीं लगेगा और वह खण्डित भी नहीं होगा, लेकिन यह सोचना शत-प्रतिशत अनुचित है। अधिक कमाकर किसी के पास रख देने पर भी व्रत में दोष तो लगेगा ही,
| पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/18 - पृ. -7 2 उपासकदाांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/49 से 45
चारित्रसारश्रावकाचार-संग्रह - चामुण्डाचार्य - भाग-2-पृ. - 241 * तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-1/24 135 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/18 - पृ. -7
262
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org