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रत्नकरण्डक - श्रावकाचार में दसों दिशाओं की मर्यादा करके पाप- - प्रवृत्ति,
अर्थात् आस्रव-सेवन के लिए मैं इससे बाहर नहीं जाऊंगा - इस प्रकार मरण - पर्यन्त लिया गया संकल्प दिव्रत कहा गया है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण में दिग्परिमाण–अतिचारों का वर्णन करते हुए यह संकेत दिया है कि धारण किए हुए व्रतों को स्मृति में रखना चाहिए, जिससे व्रतों का अतिक्रमण न हो, अतिचार व अनाचार नहीं लगे। प्रवचनसारोद्धार में भी कहा गया है
"स्मृतिमूल हि सर्व अनुष्ठानं”
अर्थात् ग्रहण किए हुए व्रतों को सदा स्मरण में रखना चाहिए। यह अतिचार सभी व्रतों पर लागू होता है । '
दिव्रत में अणुव्रती अपने गमनागमन की दिशाओं की निश्चित दूरी की मर्यादा कर लेता है, जिससे सीमा के बाहर होने वाले पाप - प्रवृत्ति से स्वयं को बचा लेता है। दिशाओं की मर्यादा व्यक्ति की भावना व शक्ति - अनुसार होती है। इसमें ऊपर, नीचे एवं तिरछी दिशा में मर्यादा से आगे जाना, क्षेत्र बढ़ाना एवं क्षेत्र की सीमा को याद नहीं रखना- इन पांच अतिचारों से अवश्य बचना चाहिए ।
दिग्व्रत - परिमाणव्रत
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण में दिग्व्रतपरिमाण - व्रत द्वारा परिभ्रमण को सीमित करने का संदेश दिया और उन्होंने इस व्रत के रहस्य को प्रकट करते हुए कहा कि परिभ्रमण के सीमित होने से वहाँ होने वाली हिंसा से हमारी भागीदारी समाप्त हो जाती है। परिभ्रमण के सीमित होने से हमारी मोहासक्ति कम हो जाती है और व्यर्थ की कल्पनाएँ भी सीमित हो जाती हैं।
महापुरुषों ने संसार के परिभ्रमण के चक्कर को समाप्त कर स्थिरता (मुक्ति) रूप आरोग्य प्राप्त करने के लिए दिग्व्रतपरिमाण के रूप में परम औषध प्रदान की है । दिग्परिमाणव्रत हमें इस सत्य के निकट ले जाता है कि परिभ्रमण संसार है, स्थिरता मोक्ष, परिभ्रमण श्रम है, स्थिरता विश्राम, परिभ्रमण रोग है, स्थिरता आरोग्य, परिभ्रमण चरम दुःख है, स्थिरता परम सुख है, अतः कम-से-कम दिग्परिमाणव्रत का नियम लेकर व्यर्थ
5 प्रवचन - सारोद्धार - आ. नेमिचन्द्रसूरि
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द्वार - 6/6 - पृ. - 141
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