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अधिकांश आगम ग्रन्थों में व अन्य वृत्तियों में प्रायः आचार्य हरिभद्र के पंचाशक के अनुसार ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूप प्राप्त होता है।
____ आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में परस्त्री के दो प्रकार किए हैं- एक तो औदारिक शरीरधारी, अर्थात् जिसका शरीर स्नायु, मांस, हड्डी से बना है और दूसरी वैक्रियलब्धिधारी, अर्थात् जिन्होनें विकुर्णवा करके अपना शरीर बनाया है। मायावी स्त्री, पशुस्त्री, औदारिक परस्त्री हैं तथा देवियाँ और विद्या धारियाँ वैक्रिय-परस्त्री है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक में अणुव्रतधारी श्रावक को अपने ब्रह्मचर्याणुव्रत को सुरक्षित रखने के लिए सोलहवीं गाथा में सावधान रहने का संकेत दिया हैं कि वह इन पाँच अतिचारों को समझकर त्याग करें।
पंचाशक-प्रकरण मे निम्न पाँच अतिचारों के वर्जन का वर्णन किया है(1) धन देकर किसी वेश्या आदि से भोग करना। (2) धन नहीं लेने वाली अनाथ, विधवा, परित्यक्ता-कुमारिका आदि अपरिगृहीता स्त्री के साथ विषय सेवन करना। (3) मैथुन के लिए अपेक्षित अंग स्त्रीयोनि और पुरुशजनित जननेन्द्रिय हैं। इनके अतिरिक्त स्तन, छाती, कपोल इत्यादि अनंग हैं, अतः स्तन आदि अन्य अंगों से रतिक्रीड़ा करना अनंग-क्रीड़ा है, अथवा स्त्री द्वारा पुरुष जननेन्द्रिय से मैथुन के बाद भी असन्तोष के कारण चर्म, काष्ठ, फल, मिट्टी इत्यादि से बने पुरुष-लिंग जैसे कृतिम साधनों से तृप्ति करना, अथवा पुरुष द्वारा उक्त प्रकार के कृत्रिम साधनों से स्त्रीयोनि की रचना करके मैथुन-क्रिया करना भी अनंग-क्रीड़ा है। (4) अपनी सन्तति के अतिरिक्त दूसरों की सन्तति का विवाह करवाना। (5) मैथुन की तीव्र अभिलाषा और तीव्र कामानुभूति के लिए औषधि आदि का प्रयोग करना। हरिभद्र ने उपर्युक्त पाँचों अतिचारों को त्याज्य कहा है।
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार 'परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंग-क्रीड़ा और तीव्रकामाभिनिवेश- इन पाँच अतिचारों का विवरण प्राप्त है, जो प्रायः पंचाशक-प्रकरण के समान है।
5 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/16 - पृ. - 6
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