Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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जाएंगी, उनको मिटाने के लिए श्रम करने की कोई आवश्यकता नहीं है, अर्थात् जब इच्छाएं परिमित हुई, अथवा समाप्त हुई, तो समझ लेना चाहिए कि पदार्थ की आवश्यकता स्वतः समाप्त हो जाएगी। भगवान् महावीर ने आचारांग में कहा है
"जे ममाइय मइं जहाइ से चयइ ममाइयं”
जो ममत्व-बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह का त्याग करता है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- शरीरादि के प्रति परमाणु-मात्र भी मूर्छा रखने वाला भले ही सम्पूर्ण आगमों का धारी हो जाए, तथापि सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान् बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति ही बन्धन है। उपासकदशांगटीका में अपरिमित इच्छाशक्ति को ही परिग्रह का कारण माना है- यही बात पंचाशक-प्रकरण में दृष्टिगोचर होती है'तथाणंवरं च णं इच्छाविहि परिमाणं करे माणे'। तत्त्वार्थ-सूत्र में– मूर्छा परिग्रहः कहकर बाह्य व आन्तरिक ममत्व को ही परिग्रह स्वीकार किया है।'
जम्बूस्वामी ने गणधर सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया- हे आर्य ! बन्धन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ?
स्वामी सुधर्मा ने उत्तर दिया- हे जम्बू ! कर्म-बन्धन का हेतु परिग्रह है। परिग्रह से ममत्व और आसक्ति बढ़ती है। इसी आसक्ति के कारण आत्मा जीवों का वध करती है और जीवों के वध से कर्म-बन्धन कर संसार में परिभ्रमण करती है, अतः जो आत्मा बाह्य व आन्तरिक परिग्रह से मुक्त होता है, वही आत्मा समस्त कर्म-बन्धन को तोड़कर मोक्ष को प्राप्त करती है। मूलाचारवृत्ति में कहा गया है"परिग्रहःपाददानोपकरणकांक्षा", अर्थात् पापरूपी उपकरणों के ग्रहण की आकांक्षा परिग्रह है। आचार्य शय्यम्भवसूरि ने दशवैकालिक में परिग्रह के विषय की चर्चा करते हुए कहा है कि- वस्त्र आदि परिग्रह नहीं है, मूर्छा ही परिग्रह है- ऐसा ज्ञातपुत्र ने कहा है।'
आचारांगसूत्र - म. महावीर स्वामी- 1/2/6 ' प्रवचनसार – आ. कुन्दकुन्द- 224,239
संयुक्तनिकाय-2/2-66 'उपासकदशांग टीका - तथाणंतरं च णं इच्छाविहि परिमाणं करेमाणे - नवांगी टीकाकार
आ. अभयदेवसूरि-1/17 – पृ. - 27 * तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-7/17 सूत्र
सूयगडांग - अभयदेव टीका-1/1 - गाथा-2-पृ. - 11 • मूलाचारवृत्ति – आ. वट्टकेर- 11/9
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