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तो विवाह करवाने वाले को उपालम्भ सुनना पड़ते हैं, अतः महापुरुषों ने इसे अतिचार बताकर श्रावकों को इस कार्य के लिए निषेध ही किया है। अणुव्रती श्रावक अन्य सभी सम्भोगिक सम्बन्धों का त्याग करते हुए स्वस्त्री में भी मर्यादा रखे, अर्थात् भोगों के प्रति तीव्र अभिलाषा नहीं रखे, तभी श्रावक अपने अणुव्रतों को बचा सकता है।
___ प्रश्न यह है कि व्रतों में दोष लगाने की बात तो समझ में आई, पर खण्डित होने की बात समझ में नहीं आती है ?
व्रत में ये दोष लगने पर व्रत दूषित होता है, खण्डित नहीं। अतिचार है, परन्तु यहाँ भी भाव की अपेक्षा से तो व्रत भंग ही माना गया है, अतः यदि अणुव्रती श्रावक यह कहता रहेगा कि ये तो अतिचार है, अनाचार नहीं है, इससे व्रतभंगरूप दोष नहीं है, तो वह सदाचार से भ्रष्ट हो जाएगा, उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाएगा, अतः भूलकर भी ऐसी भूल न की जाए, जिससे यह अतिचार अनाचार बनकर व्यभिचार में बदल जाए और उसके फलस्वरूप परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व की सदाचार की व्यवस्था ही तहस-नहस हो जाए ? फिर तो समाज में सदाचार-सच्चरित्र के दर्शन ही नहीं होंगे तथा इन अणुव्रतों का फिर कोई महत्व भी नहीं रहेगा।
___ स्वदार-संतोषव्रत की तरह ही स्वपति-संतोषव्रत को भी समझना है कि श्राविका भी इस अणुव्रत का पालन करते हुए श्रावक के समान ही उपर्युक्त अतिचारों का वर्जन करे।
अणुव्रत का पालन सुचारु रूप से हो- इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता है। पति-पत्नी में सम्बन्ध अच्छे बने रहें, इसके लिए पत्नी अपने पति के साथ मधुर व्यवहार रखे। यदि पत्नी का व्यवहार पति के प्रति कुशल हो, वह धर्म के महत्व को, त्याग के महत्व को, मनुष्यजीवन के महत्व को, संयम के महत्व को समझती रहे, तो वह सदैव पति के आकर्षण का केन्द्र बनी रहेगी और परस्पर कलह भी नहीं होगा। इस कथन की पुष्टि हमें डॉ. सागरमल जैन के लेख से प्राप्त होती है कि स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध रखना जैन-श्रावक के लिए निशिद्ध है। पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति और सुव्यवस्था की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यह व्रत पति-पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति विश्वास जाग्रत करता है
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