Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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श्रावक के द्वादश व्रत - उपासकदशांग में व्रतों के दो भेद हैं- अणुव्रत और शिक्षाव्रत, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने बारह व्रतों के तीन विभाग किए हैं- अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इन अणुव्रतों का आख्यान पंचाशक - प्रकरण के अतिरिक्त सावयपन्नति, धर्मबिन्दु एवं श्रावकधर्मविधि - प्रकरण में भी विस्तार से किया है।'
जैन - आचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक-साधना के द्वार हैं। इन अणुव्रतों का सम्यक् आचरण करने पर ही श्रावकत्व की ओर अग्रसर हुआ जाता है। श्रावक इन व्रतों का पालन बड़ी श्रद्धा व एकाग्रता के साथ जीवन - पर्यन्त करता है । पाँच अणुव्रतों को शीलव्रत भी कहा जाता है। शील का अर्थ भी सद्- आचरण ही है। अणु का अर्थ छोटा या सीमित होता है। श्रावक व्रतों का पालन मर्यादित, सीमित या स्थूल रूप से करता है। मुनियों के महाव्रतों की अपेक्षा श्रावक के व्रत आंशिक व सीमित होते हैं, इसी कारण श्रावकों के व्रतों को अणुव्रत कहते हैं और श्रावक को अणुव्रती कहते हैं ।
स्थूल प्राणातिपात - विरमण से तात्पर्य है- त्रस जीवों, अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बचना । स्थूल प्राणियों, अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा से विरमण स्थूल प्राणातिपात विरमण नामक प्रथम अणुव्रत है ।
सम्यग्दर्शन आत्म–शोधन के लिए है । सम्यग्दर्शन द्वारा भीतर का मिथ्या विश्वास रूप कचरा साफ हो जाता है । सम्यग्दर्शन की अणुव्रत की प्रज्ञा प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति स्वयं अहिंसामय बन जाता है, सत्यमय बन जाता है, अस्तेयमय बन जाता है, ब्रह्ममय बन जाता है, अपरिग्रही बन जाता है। सम्यग्दर्शन वैसी ही दृष्टि प्रदान करता है, जिससे बुराईयाँ दिखाई ही नहीं देती है। सम्यग्दर्शन एवं अणुव्रतों के आधार पर ही व्यक्ति के गुणों का विकास होता है, अर्थात् श्रावकत्व प्रकट होने लगता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचाशक - प्रकरण में गुणव्रतों की चर्चा की है । गणुव्रतों के विकास-क्रम को व्यवस्थित करने के लिए उत्तर गुणों का विधान किया गया है। मूलगुण अणुव्रत है, परन्तु अणुव्रतों को सुरक्षित रखने के लिए, उनकी रक्षा करने के लिए, उन्हें निर्मल रखने के
1 (क) सावयपन्नत्ति - आ. हरिभद्र
(ख) धर्म- बिन्दु - आ. हरिभद्र
(ग) श्रावकधर्मविधि - प्रकरण - आ. हरिभद्र
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