________________
अनुकम्पा और आस्तिक्य- के आधार पर विचार करना चाहिए। इन लक्षणों का वर्णन तो पूर्व में हो चुका है, अतः यहाँ सम्यग्दर्शन के आठ आचारों का ही विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यद्यपि सम्यग्दर्शन के आचारों का विवेचन पूर्व में भी कर चुके हैं, फिर भी प्रस्तुत अध्याय की दूसरी गाथा में आचार्य हरिभद्र ने आठ आचारों का आख्यान किया है। वे आठ आचार इस प्रकार हैं
1. निःशंकित - तीर्थंकरों के वचनों में शंका का अभाव। 2. निःकांक्षित - इन्द्रियजनित सुखों की इच्छा का अभाव । 3. निर्विचिकित्सा – सुविहित साधु के मलिन वस्त्रों के प्रति ग्लानि का अभाव । 4. अमूढ़दृष्टि – मिथ्यादृष्टि जीवों के कार्यों के अनुमोदन का अभाव । 5. उपवृंहणा – धर्माराधना के प्रति प्रीति तथा सद्गुणों की वृद्धि करना। 6. स्थिरीकरण – स्व और पर को सुधर्म में स्थिर करना। 7. वात्सल्य - साधर्मिक का भोजन, वस्त्रादि से सम्मान करना। 8. प्रभावना – अन्य लोग जैन धर्म के प्रति आकर्षित हों, ऐसे कार्य करना।
इन आठ आचारों में प्रभावना आचार प्रधान है। जिन-शासन के जो भी कार्य होते हैं, उनमें जिन-शासन अर्थात् जैनधर्म की प्रभावना होती है और यही प्रभावना व्यक्ति को सत्पथ से जोड़ती है तथा प्रभावनाअंग अभिवृद्धि करती रहती है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की तीसरी गाथा में' कहते हैं
सम्यग्दर्शन के आठ आचारों में प्रभावना प्रधान आचार है, क्योंकि जो निःशंकित आदि आचारों से युक्त हैं, वही शासन की प्रभावना कर सकता है। जिनयात्रा जिन-शासन की प्रभावना का प्रधान कारण है, इसलिए यहाँ जिनयात्राविधि का वर्णन किया गया है।
3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि -9/2 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/3
- पृ. - पृ. - 149
148
210
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org