Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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किसी महोत्सव में आचार्य न हों, तो मुख्य श्रावकों को राजा से मिलना चाहिए और उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें जीव दया के विषय में समझना चाहिए तथा कत्लखानों और मछुआरों को आर्थिक सहयोग देकर जीव - हिंसा बन्द करवानी चाहिए, क्योंकि जीव - दया का कार्य करने पर सम्यग्दर्शन के बीज का वपन स्वयं में भी किया जाता हैं एवं अन्यों में भी करवाया जाता हैं। जहाँ भी शासन - प्रभावना के लिए कार्य होते हैं, वहाँ भावोल्लास आता है, वही सम्यक्त्व भावोल्लास का कारण बन जाता है, अतः अहिंसा हेतु तन, मन, धन का पूर्णतः उपयोग करना चाहिए । इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने यात्राविधि - पंचाशक की इक्कीसवीं से चौबीसवीं तक की गाथाओं में जीव- दया के लाभों का प्रतिपादन किया हैं
आचार्य न हों, तो श्रावकों को ही प्रचलित रीति-रिवाज के अनुसार राजा से मिलना चाहिए और उसे समझाकर जीव - हिंसा बन्द करवाना चाहिए । यदि समझने से राजा न माने, तो उसे धन देकर भी यह कार्य करवाना चाहिए ।
जीव-हिंसा से आजीविका चलाने वाले मछुआरों आदि को भी, जितने दिन महोत्सव हो, उतने दिन अन्नादि का दान देकर हिंसा बन्द करवाना चाहिए तथा उन्हें अहिंसा का शुभ उपदेश देना चाहिए।
हिंसकों को दान देकर हिंसा बन्द करवाने से लोक में जिन - शासन की प्रशंसा होती है और इससे कितने ही लघुकर्मी जीवों को सम्यग्दर्शन का उत्तम लाभ होता है तथा अन्य कितने ही जीवों को सम्यग्दर्शन के बीज की प्राप्ति होती है। जिन - शासन के सम्बन्ध में यदि थोड़ा भी गुण - प्रतिपत्ति हो, तो वह ही सम्यग्दर्शन का कारण बनती है। इस विषय में चोर का उदाहरण प्रसिद्ध है ।
विशेष
यह उदाहरण सप्तम् पंचाशक की आठवीं गाथा में कहा गया है।
यहाँ प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि श्रावक की राजा तक पहुँच न हो, तो फिर क्या करना चाहिए?
1 पंचाशक- प्रकरण -
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आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/21 से 24 पृ. 154, 155
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