Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की अड़तालीसवीं गाथा में' कहते हैं कि जिनागम के होते हुए लोकरुढ़ि से महोत्सव करने से लोकरुढ़ि ही जिनागम से भी बड़ी प्रमाणभूत बन जाती है। इस प्रकार, लोक-परम्परा को प्रमाण मानने में लोकरुढ़ि जिन-शासन से भी प्रमुख हो जाती है। लोकरुढ़ि को भगवान् की वचना से बड़ा मानना मिथ्यात्व है। इससे सर्वज्ञ देव की महान् आशातना होती है, इसलिए सर्वज्ञवचन को ही प्रधान मानना चाहिए।
सर्वसाधारण को जिनाज्ञा का स्वरूप दर्शाते हुए आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की उन्पचासवीं गाथा में कहते हैं
महोत्सव के अतिरिक्त अन्य अनुष्ठानों में भी गुरुता-लघुता को भलीभांति जानकर इष्ट-अनुष्ठान में प्रवृत्ति होना चाहिए- यही भगवान् का आदेश है। उपसंहार - जिनयात्राविधि के अर्न्तगत् जिनयात्रा किस प्रकार करना चाहिए- यह आचार्य हरिभद्र द्वारा पूर्णतः बता दिया गया है। भव्य जीव को इसे पढ़कर तथा समझकर जिनयात्रा-महोत्सव में समृद्धिपूर्वक प्रवृत्ति करना चाहिए एवं सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए जिनाज्ञा का पालन करना चाहिए। यही बात आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की पचासवीं गाथा में कहते हैं
__ श्रद्धालु एवं सज्जन मनुष्यों द्वारा गुरुमुख से इस जिन–महोत्सवविधि को जानकर उसी प्रकार हमेशा करना चाहिए, अर्थात् जिनयात्राओं का आयोजन करना चाहिए।
--अध्याय द्वितीय समाप्त
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/48
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/49 - पृ. 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/50
عبہ مہ
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