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जिनमन्दिर निर्माण का फल - आप्त पुरुषों का कथन है कि शुभकार्य करने, करवान एवं अनुमोदन करने वाला शुभ गति को ही प्राप्त करता है, अतः श्रावक निरन्तर स्वयं को शुभ कार्यों में रत रखे, जिससे सद्गति को प्राप्त करता रहे एवं परम्परा से सिद्धगति को प्राप्त कर सके। जिनभवन निर्माण करवाने वाला सद्गति को ही प्राप्त करता है, दुर्गति को नहीं तथा परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करता ही है, अतः श्रावक के इन कर्तव्यों को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि-पंचाशक की चवालीसवीं गाथा में' जिनमन्दिर निर्माण के फल की चर्चा करते हुए कहते हैं
आप्तवचन का पालन करने वाले श्रावक को मुक्ति न मिलने तक देवगति और मनुष्यगति में अभ्युदय और कल्याण की सतत परम्परारूप जिनभवन-निर्माण का जो फला मिलता है, उससे अन्ततः मोक्ष मिलता है- ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा की भावना का फल- जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाने की भावना का परिणाम भी सद्गति एवं परम्परा से मुक्ति है, अतः महोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा करवाने के भाव होने ही चाहिए। चूंकि भावों के आधार पर ही व्यक्ति भूमि से शिखर तक पहुँच जाता है, अतः प्रतिष्ठा की भावना से क्या फल मिलेगा, इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि –पंचाशक की पैंतालीसवीं गाथा में वर्णन करते हैं
जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा के भाव से उपार्जित पुण्यानुबन्धी पुण्य के फल से जीव को सदा देवलोक आदि सुगति की प्राप्ति होती है, अर्थात् जब तक मोक्ष न मिले, तब तक वह देवलोक या मनुष्य-लोक में ही उत्पन्न होता है। साधुदर्शन की भावना का फल - साधुदर्शन की भावना से भी पुण्य प्रकृष्ट होता है। संयमितो के प्रति अहोभाव पुष्ट होता है, साधुदर्शन से संतुश्टि होती है तथा एक से अनेक गुण परिपुष्ट होते हैं, अतः प्रतिदिन प्रभुदर्शन के पश्चात् साधुदर्शन के भाव रहना चाहिए और यदि वे आस-पास हों, तो अवश्य ही दर्शन करें, अन्यथा भावना से आँख
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/44 - पृ. - 129 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-7/45 - पृ. - 129
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