Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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बन्द करके मुनिराजों के दर्शन कर गुणों की वृद्धि और अन्त में सिद्धि प्राप्त करने हेतु सदा प्रयत्न करते रहें। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि-पंचाशक की छयालीसवीं गाथा में' कहते हैं
साधुदर्शन की भावना से उपार्जित कर्म से सुगति में भी स्वाभाविक गुणानुराग होता है, इसलिए समय आने पर साधु का दर्शन होता है और साधुदर्शन से क्रमशः आत्मा में नए-नए गुण प्रकट होते हैं। अन्य जीवों के प्रतिबोध की भावना का फल - जिनमन्दिर के निर्माण से अन्य को भी जिनमन्दिर बनाने के भाव आते हैं, तो उनके लिए शुभ-भावनाओं के प्रेरणास्रोत होने के कारण वे मोक्षमार्ग के राही बनते हैं, अर्थात् उनमें द्रव्य-चारित्र ही नहीं, अपितु भाव-चारित्र की भी उपलब्धि की भावना होती है। इसी भावना को परिपुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन निर्माणविधि-पंचाशक की सैतालीसवीं गाथा में कहते हैं कि
मन्दिर निर्माण से दूसरे लोग भी प्रतिबोध को प्राप्त करेंगे- इस भाव से उपार्जित-कर्म से सर्वथा सुखदायी, मोक्षसुख देने वाले भाव-चारित्र की नियम से प्राप्ति होती है। स्थिर शुभचिन्तन का फल- जिनमन्दिर निर्माण में लगने वाला धन ही सार्थक है। सुकृत में लगने वाला धन ही वास्तव में मेरा धन है- इस प्रकार का चिन्तन परिग्रह-त्याग की भावना और प्रकारान्तर से चरम में ग्रहण कराने वाला होता है। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन-निर्माणविधि -पंचाशक की अड़तालीसवीं गाथा में स्पष्ट करते हैं
जो धन जिन-मन्दिर में लग रहा है, वही मेरा है- ऐसे स्थिर शुभ चिन्तन रूप भाव से उपार्जित शुभकर्म के विपाक से जीव स्वीकृत चारित्र का अन्त तक निर्वाह करता है, अर्थात् आजीवन चारित्र का सम्यक् पालन करता है और विशुद्ध चारित्र का
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/46
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-1/47 - पृ. 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/48 – पृ. -
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